सोमवार, 30 जुलाई 2018

Monuments of Petersburg - 04


दो बार जन्मा




पिघलाना, टुकड़े कर देना, नष्ट कर देना – कई स्मारकों की किस्मत में होता है. दमन का एक सौम्य तरीका भी होता है – कारावास देकर अलग-थलग कर देना, जैसे, किसी सराय में या गैरेज में – अच्छे दिन आने तक, और फिर पुनर्वसन किया जाना और अपनी जगह पर वापस लौटाना.

इस स्मारक का भाग्य असाधारण है. दुनिया के सामने आज़ाद ज़िंदगी (बेशक, उस हद तक, आज़ाद ज़िंदगी, जितनी स्मारकों की जानने की क्षमता है), अचानक सज़ाए मौत, टुकड़े-टुकडे करके लकड़ी की पेटियों में बंद होना और, आख़िरकार, चौदह साल के गंभीर अकेलेपन के बाद प्राप्त हुई आज़ादी, मगर विचित्र शर्त के साथ – जैसे घर में नज़रबंद किया गया हो.        

इस स्थिति पर एक अन्य रूपक – चिकित्सा संबंधी - भी लागू किया जा सकता है. लम्बी ज़िंदगी - अकस्मात् नैदानिक मृत्यु (जो चौदह साल खिंची) – ज़िंदगी में वापसी, पुनर्वास, प्रतिबंधित हेल्थ-रिसॉर्ट...

दूसरा रूपक ज़्यादा अनुकूल है. आख़िर बात डॉक्टर के स्मारक के बारे में हो रही है.

सन् 1859 में पीटर्सबुर्ग में दो समारोह हुए थे: दो स्मारकों का एक के बाद एक अनावरण किया गया. एक – सम्राट का, ये था जून में; दूसरा – बैरोनेट, वास्तविक गुप्त सलाहकार का – दिसम्बर में. सम्राट का नाम था, ज़ाहिर है, निकोलाय, ये सबको मालूम है, मगर बैरोनेट जेम्स वासिल्येविच वाइली के बारे में आज कम ही लोग जानते हैं. जो, पहली नज़र में विस्मयजनक ही प्रतीत होता है. असल में उस समय कदम-कदम पर स्मारक नहीं लगाए जाते थे, स्मारक का अनावरण महत्वपूर्ण घटना होती थी और अपने बारे में ख़ुद ही बयान करती थी. वे सभी, जिन्हें उन दिनों काँसे में अमर बना दिया गया था उँगलियों पर गिने जा सकते थे – दो त्सार, तीन जनरल, दादा क्रीलव और, बेशक, ये वाइली, इस पंक्ति में आख़िरी. इस पहली पंक्ति के स्मारक – सभी, वाइली के स्मारक को छोड़कर – अपने आप ही मशहूर थे, और, उन हस्तियों से कम मशहूर नहीं थे, जिनको वे महिमामंडित करते थे. सिर्फ वाइली का स्मारक, इसके विपरीत, लगभग अनजान है, अधिकांश पीटरबुर्गवासी उसके अस्तित्व की कल्पना भी नहीं कर सकते. ये इसलिए भी आश्चर्यजनक प्रतीत होता है, क्योंकि उसका आकार, सौम्य शब्दों में कहें तो, प्रभावशाली है. पैडेस्टल समेत इसकी ऊँचाई आठ मीटर्स है! थोड़ी सी, मगर आठ मीटर की ऊँचाई तक तो पहले स्थापित किए गय स्मारक चाहे सुवोरव हो, या कुतूज़व, या बार्क्ले द टोली... नहीं पहुँच सकते.

ज़ाहिर है, ये कोई घास में पड़ी हुई सुई तो नहीं है – ऐसी चीज़ को अनदेखा कैसे किया जा सकता है?

पूरा मामला ये है, कि साधारण नागरिकों के लिए स्मारक देखना असंभव है. वह अजनबियों की नज़रों से छुपा हुआ है, लगभग गुप्त है. वर्तमान में वह मिलिटरी-मेडिकल अकाडेमी के पार्क में है, वहाँ सिर्फ सैनिकों द्वारा संरक्षित चेक-पॉइन्ट्स से होकर ही जा सकते हैं. मतलब कि नहीं जा सकते. बेशक, अगर आप किसी मिलिट्रीवाली चालाकी से काम न लें, मगर, इसके परिणाम गंभीर हो सकते हैं...

जन्म से स्कॉटिश, पादरी के बेटे, जेम्स वाइली ने (हमारे हिसाब से – याकव वासील्येविच विली) सम्राज्ञी कैथेरीन के ज़माने में रेजिमेन्टल डॉक्टर के रूप में रूसी सेवा में प्रवेश किया. सम्राट पॉल के ज़माने में वह स्टाफ़-सर्जन बन चुका था, और अलेक्सान्द्र के ज़माने में तो साम्राज्य के पूरे चिकित्सा-विभाग का प्रभारी था. वह प्रमुख मेडिकल-सर्जन था, मिलिटरी-मिनिस्ट्री के मिलिटरी-मेडिकल डिपार्टमेन्ट का प्रमुख था, मेडिको-सर्जिकल अकादमी का प्रेसिडेन्ट था. मिलिटरी-विभाग में उसने काफ़ी सुधार किए. उसने “मिलिटरी-मेडिकल जर्नल” का आरंभ किया, जो आज तक(!) प्रकाशित हो रहा है. पचास वर्षों से अधिक काल उसने रूस की चिकित्सा सेवा को समर्पित किया था. एक अच्छे चिकित्सक-व्यवस्थापक के रूप में वह मशहूर था. इसके अलावा उसने कई ग्रंथों की रचना की, जिनमें प्रमुख है – “फील्ड फार्माकोपिया”.

त्सार अलेक्सान्द्र, जिसके साथ विली हर सैनिक अभियान पर जाता था, अकारण ही उस पर फ़ख्र नहीं करता था – पैरिस के निकट सैन्य-समीक्षा के दौरान सभी मित्र सम्राटों ने रूसी त्सार को, विली द्वारा ज़ख्मी सहयोगियों को दी गई सहायता के लिए यूँ ही धन्यवाद नहीं दिया था.

एक बार अलेक्सान्द्र I ने उसके लिए व्यक्तिगत रूप से बहुत गहरे अर्थ वाले (खून से लथपथ हाथ...) राज्य-चिह्न की कल्पना की थी, और इंग्लैण्ड यात्रा के दौरान प्रिन्स-रीजेन्ट से विली के लिए (अंग्रेज़ नागरिक होने के नाते) सरके ख़िताब वाली पीढ़ीगत कुलीनता और बैरोनेट की पदवी देने की प्रार्थना की थी.

विली ने वसीयत में अपनी विशाल बचत – लगभग डेढ़ मिलियन रूबल्स – रूस में चिकित्सा विज्ञान के विकास के लिए प्रदान कर दी, विशेष रूप से मेडिको-सर्जिकल अकादमी में क्लीनिक की स्थापना के लिए (जिसे बैरोनेट विली का नाम दिया जाने वाला था). उसने वसीयत में अपने लिए स्मारक बनाने की इच्छा भी व्यक्त की, और इस बात का भी ख़ुद ही इंतज़ाम किया कि स्मारक पर किसी को खर्च न करना पड़े. और, स्वास्थ्य की देवी हायजिआ को समर्पित – एक फ़व्वारे का अलग से निर्माण भी करवाने की बात भी लिखी.

शिल्पकार डी. आइ. जेन्सेन और वास्तुशिल्पकार ए. आइ. श्ताकेन्श्नेयदेर को दोनों ही (स्मारक और फ़व्वारा) से संबंधित तस्वीरें भी मिलीं.

9 दिसम्बर को, विली की रूसी चिकित्सा-सेवा में पदार्पण करने की 69वीं वर्षगाठ पर स्मारक का समारोहपूर्वक उद्घाटन किया गया. शासकीय प्रोफेसर याकव अलेक्सेयेविच चिस्तोविच ने, जिसने उस अवसर पर लम्बा-चौड़ा भाषण दिया था, समारोह के बारे में एक पूरी किताब लिखी है.

विली ने, जिसकी सेहत किसी पहलवान जैसी थी और, कहा जाता है, कि वह कभी बीमार नहीं होता था, ख़ामोशी से इस दुनिया से बिदा ले ली, नब्बे तक पहुँचने से पहले. उतने ही सालों तक स्मारक भी एक ही जगह पर – अकादमी के दर्शनीय भाग में – आराम से खड़ा रहा. इस दौरान अकादमी ने अपना नाम बदल दिया था और काफ़ी ज़्यादा प्रसिद्धि प्राप्त कर ली थी. ना तो त्सार के, और ना ही सोवियत काल में, शायद, स्मारक किसी की आँखों में खटकता था. वह आज तक भी प्रमुख प्रवेश द्वार के पास खड़ा रहता, अगर एक बार एक अप्रत्याशित घटना न घटी होती – कॉस्मोपोलिटन्स से संघर्ष.

स्मारक इसे बर्दाश्त नहीं कर पाया.

विली के बारे में सन् 1859 में दिये गए इस वक्तव्य की सन् 1948 में “लेनिनग्राद प्राव्दा” में छपे लेख से तुलना करना दिलचस्प होगा. मिसाल के तौर पर, स्मारक के उद्घाटन के अवसर पर प्रोफेसर चिस्तोविच ने उत्साह से कहा था : “उसने काफ़ी जल्दी, और सम्पूर्ण देशभक्तिपूर्ण सच्ची प्रसन्नता से अपनी हार्दिक इच्छा का फल देखा : रूस में एक रूसी मेडिकल अकादमी की स्थापना करना; सचमुच, अकादमी के प्रबंधन में उसके प्रवेश करने के पंद्रह सालों के भीतर ही उसकी कॉन्फ़्रेन्स के सदस्यों में एक भी विदेशी नहीं था”. 6 और “लेनिनग्राद प्राव्दा” ने सन् 1948 में लिखा: “रूसी जनता के ख़िलाफ़ निर्देशित ब्रिटेन की विदेश नीति का एक होशियार सरदार, जिसने ज़िंदगी भर रूसी डॉक्टरों को सताया, विली ने हमारे राष्ट्रीय चिकित्सा-विज्ञान के विकास में बाधा डाली”.7                                   
इस लेख में, जिसे बड़ा भद्दा शीर्षक दिया गया था “रूसी चिकित्सा विज्ञान के इतिहास में विदेशियों की चापलूसी के विरोध में”, याकव वासिल्येविच पर सभी ख़तरनाक पापों का दोष लगाया गया था – वो, जैसे, ग्रंथ-चोर था, परोपजीवी था, ख़तरनाक था, और, बेशक, अंग्रेज़ जासूस था.

वह “ज़हरीले-डॉक्टर्स” का प्रेरक भी हो सकता था, जिन पर “विदेशियों की चापलूसी के विरोध...” के प्रकाशन के चार साल बाद मुकदमा चलाया जाने वाला था – क्योंकि कैथेरीन के समय में ही, रेजिमेंट-डॉक्टर होते हुए, नौजवान विली ने अस्थायी बुखार के इलाज के लिए एक उपाय के रूप में आर्सेनिक का प्रयोग किया था. अठारहवीं सदी के अंग्रेज़ जासूस से “आर्सेनिक का सिरा” बीसवीं सदी तक खींचा जा सकता था, मगर वहाँ तक सिर्फ मेरा परिष्कृत दिमाग़ ही पहुँच सकता है, उन “मुकदमों” के विचारकों ने,  सौभाग्य से, इतिहास का इतना गहन अध्ययन नहीं किया.

   ऐतिहासिक डॉक्टर की प्रतिष्ठा के प्रश्न पर मिलिटरी-मेडिकल म्यूज़ियम के नेतृत्व द्वारा आयोजित एक मीटिंग में विचार-विमर्श किया गया; विवरण मुझे ज्ञात नहीं है, मगर ये पता है, कि मिलिटरी-डॉक्टर्स और इतिहासकारों के सम्मान में अधिकांश वक्ताओं ने “लेनिनग्राद प्राव्दा” में छपे आरोपों को खारिज कर दिया. ये सोचने का मन होता है, कि इसीलिए स्मारक को नष्ट नहीं किया गया, बल्कि सिर्फ हटाया गया. हिस्से अलग किए – पैक किया – निकाल दिया. अकादमी के प्रवेश द्वार के सामने, ज़ाहिर है, वह कभी भी नहीं हो सकता – यहाँ सन् 1996 में बल्शोय सैम्प्सनियेव्स्की एवेन्यू से “हायजिया” फव्वारा प्रतिस्थापित किया गया, वही फ़व्वारा - जो विली के पैसों से बना था.                  

अनेक वर्षों का कारावास – या, देखा जाए तो, स्मारक की नैदानिक मृत्यु – ख्रुश्चोव के गरमाहटकाल के अंत में, जैसा कि होना चाहिए था – सन् 1964 में पुनर्वास से (और, दोनों - कानूनी और चिकित्सा की दृष्टि से) समाप्त हो गया. स्मारक को नये सिरे से जोड़ा गया और अब उसे अकादमी के भीतरी पार्क में  पुनर्स्थापित किया गया. अजनबियों से बातचीत करने पर प्रतिबंध था (सौम्य शब्दों में कहें तो, चिकित्सा की दृष्टि से निषिद्ध था). पार्क लगभग निर्मनुष्य है – अगर कोई किनारे से गुज़रता भी है, तो समझ लो, कि अपना – मिलिटरी-मेडिकल डिपार्टमेंट का है. पेड़ों की छाँव में याकव वासिल्येविच को आराम करने की सलाह दी गई है, मगर आराम कहाँ का, जब तुम्हारे एक हाथ में पेन्सिल और दूसरे में – कागज़ का मुट्ठा हो? ख़ुद याकव वासिल्येविच, ग़ौर कीजिए, चट्टान के किनारे पर बैठा है... वह पूरी मिलिटरी-मेडिकल युनिफॉर्म में है – समारोहपूर्ण, मेडल्स के साथ...तलवार के साथ...उसके पैरों के पास किताब है...किताब – इतनी मोटी, कि मज़बूती से नीचे अपने किनारे पर किए खड़ी है – ये वही फार्माकोपिया है. और मोटाई को देखते हुए – चौथी आवृत्ति है (1848), आठ सौ पृष्ठों वाली...(वैसे, लैटिन में है.)

राज्य-चिह्न, हालाँकि काँसे का है, फिर भी पूरा साबुत बचा है...मगर दो अन्य नक्काशियाँ स्वाभाविक रूप से लुप्त हो गईं...आह, “प्रेसिडेन्ट के रूप में” विली की अध्यक्षता में अकाडेमी की कॉन्फ्रेन्स के चित्र नश्वर लोगों में से कोई भी नहीं देख सकेगा, उसी तरह जैसे बोनापार्ट के साथ युद्ध के प्रसंग, जब “युद्ध के मैदान में ज़ख्मियों की सेवा कर रहे”, ऐतिहासिक डॉक्टर को इस अकादमी के छात्रों के साथ” दिखाया गया था (चिस्तोविच).

ख़ामोशी है यहाँ. यहाँ से हटने का मन नहीं करता. स्वास्थ्य की देवी की प्रतिमाओं में ग्रेनाइट के करियाटिड्स देखने का मन करता है...राज-चिह्न पर “खून से लथपथ हाथ” ढूँढ़ने को...मेडल्स गिनने को...

पैडेस्टल की ऊँचाई में प्रत्यक्ष अर्थ स्पष्ट है. वहाँ, ऊपर, बेशक, वह सुकून से है. वहाँ उस तक नहीं पहुँच सकते.

जुलाई 2007

P.S. (अगस्त 2009)

मगर नहीं, इतिहास चलता रहता है. कल यह किताब प्रेस में जाएगी दूसरे संस्करण के लिए, और यहाँ ऐसी घटनाएँ! ये घोषणा की गई, कि गुमशुदा आकृतियों में से एक आकृति की प्लेट मिली है. समाचारों में सूचित किया गया, कि “दो असली पीटरबुर्गवासियों” (एक उद्यमी और एक पुनर्स्थापक) ने उसे किसी संदेहास्पद व्यक्ति से अलौह धातुओं की खरीदवाली दुकान के पास से ख़रीदा और अपने प्रयत्नों से उसे पुनर्स्थापित भी कर दिया. अब स्मारक को पहले वाली जगह पर स्थानांतरित करने की संभावना के बारे में बातें हो रही हैं. मगर, मेरा ख़याल है, ये मुश्किल है...मगर, मुझे किसी भी बात से अचरज नहीं होगा.

ज़िंदा रहेंगे – देखेंगे. 

गुरुवार, 19 जुलाई 2018

Monuments of Petersburg - 03



कीरव माँस पैकिंग संयंत्र में





इस स्मारक के बारे में बतलाते हुए, पहेलियाँ बुझाने को जी चाहता है – किसी टी.वी. क्विज़ की तरह, जो “यकीन है – नहीं है” के सिद्धांत पर बनाया गया है. सवाल, मिसाल के तौर पर, इस तरह से बनाया जा सकता है : “क्या आपको यकीन है, कि सेंट पीटर्सबुर्ग में पार्टी के कार्यकर्ता का एक स्मारक है, जिसके पैडेस्टल पर ढले हुए, उभरे अक्षरों में शब्द “शैतान” प्रदर्शित किया गया है?”

सही जवाब : हाँ! यकीन है!...वो तो ख़ुद ही स्पष्ट है – वर्ना पूछता ही नहीं. स्मारक को सन् 1937 में स्थापित किया गया था. ऊँचा – पैडेस्टल समेत करीब आठ मीटर्स. एक तरह से स्मारक को गोपनीय रखा गया है. बाहरी आदमियों के लिए प्रवेश निषिद्ध है, वह उस संयंत्र के अहाते में खड़ा है, जिसे कई सालों तक एस. एम. कीरव लेनिनग्राद माँस पैकिंग संयंत्र के नाम से जाना जाता था. ज़ाहिर है, कि ये ही एस. एम. कीरव का स्मारक है, जो भीमकाय माँस उद्योग” के निर्माण और आरंभ के दौरान उसका प्रमुख संरक्षक था.

“भीमकाय” को “प्रथम-शिशु” भी कहते थे, और इस शब्द में मॉस्को को चुनौती का आभास होता है. लेनिनग्राद के देशभक्तों की मूर्तियाँ तब तक बनाई जा रही थीं. उद्योग के अथक कार्य का एक साल पूरा होने पर प्रकाशित किए गए एल्बम में बड़े फ़ख्र से सूचित किया गया था : “ लेनमाँसयंत्र का निर्माण, जो मॉस्को और सेमिपलातीन्स्की के संयंत्रों से करीब साल भर बाद शुरू हुआ था – तेईस महीनों में पूरा किया गया और इसने मॉस्को वाले संयंत्र से पहले काम आरंभ कर दिया, भौतिक कामों के अत्यंत व्यापक होने के बावजूद”. ये “पहले”, मतलब, कहना पड़ेगा, कि सिर्फ एक दिन पहले हुआ था, और “भौतिक कामों की व्यापकता” बिल्कुल सही है, बिना बेवकूफ़ों के भी – निर्माण शुरू किया गया था शहर की सीमा से बहुत दूर, एक खुले खेत में (गंदे, बेशक...), जहाँ कुछ भी नहीं था, आने जाने का रास्ता तक नहीं...

प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार, सन् ’36 के अंत में शिल्पकार तोम्स्की की कार्यशाला कीरव के अनेक मॉडेल्स से भरी हुई थी. शिल्पकार, जिसे अभी तक सम्पूर्ण सोवियत संघ में प्रसिद्धि प्राप्त नहीं हुई थी, मगर जिसने प्रतिष्ठित प्रतियोगिता जीत ली थी, एक साथ तीन-तीन कीरवों पर काम कर रहा था.

पहली दिसम्बर को – दो साल पहले स्मोल्नी पर पिस्तौल की मनहूस गोली चलने की दूसरी सालगिरह पर – “प्राव्दा” ने एक फोटो पुनःप्रकाशित किया था : पार्टी की XXVIIवी काँग्रेस में कीरव स्टेज पर खड़ा है – उत्तेजित, उत्साह से भरपूर, हाथ ऊपर उठाए. फोटो ने शिल्पकार और निर्माता – निकोलाय तोम्स्की और नोय त्रोत्स्की- दोनों को समान रूप से प्रभावित किया. “साहित्यिक लेनिनग्राद”1 अख़बार के संवाददाता से बात करते हुए तोम्स्की ने स्मारक की अवधारणा की कल्पना इस प्रकार की : “सुखी और प्रसन्न कीरव”. “सुखी और प्रसन्न” कीरव के विचार को प्रमुख स्मारक के लिए, जो हाल ही में निर्मित (त्रोत्स्की के डिज़ाइन के अनुसार) रीजनल कौन्सिल के सामने लगाया जाने वाला था, सुरक्षित रखा गया, मगर सन्1938 आते-आते अवधारणा बदल गई – लेनिनग्राद के कम्युनिस्टों का नेता “प्रसन्न” के स्थान पर “ज्वलन्त” और “सुखी” के स्थान पर “आश्वस्त” बन गया.                  

और ये “सुखी और प्रसन्न” अवतरित हुआ (सन् 1937में) माँस पैकिंग संयंत्र में.

पहली बात, चेहरे के भाव : स्पष्ट है कि कोई वक्ता प्रकट रूप से प्रसन्नता से भाषण दे रहा है. दूसरी, उसकी मुद्रा : हाथ का आशावादी स्ट्रोक. तीसरी, जैकेट की जेब, जो दिल के पास है : वह हौले से खुली हुई है, पहेली बूझने की ज़रूरत नहीं है कि उसमें क्या है. पार्टी का टिकट.
चौथी, बाएं हाथ के नीचे: मोटी किताब. नीचे से दिखाई नहीं देता, कि ये कैसी किताब है. खास तरह से तो मैंने उसकी फोटो नहीं ली, मगर, घर आकर पूरी तस्वीर को ज़ूम करने के बाद, बस बुरी तरह चौंक गया. “लेनिन. स्तालिन”, पीठ पर स्पष्ट अक्षरों में लिखा था. तोम्स्की ने, बेशक, स्टालिन की कब्र के लिए क्रेमलिन की दीवार के निकट उसकी अर्धप्रतिमा बनाई थी, मगर ये हुआ था ब्रेझ्नेव के ज़माने में, ये छोड़ दीजिए, - ख्रुश्चोव के ज़माने में लेनिनग्राद में तोम्स्की द्वारा निर्मित स्टालिन के तीनों स्मारक, सचमुच में हटा दिए गए थे. मेरा ख़याल है, कि माँस पैकिंग संयंत्र में कीरव का स्मारक – शहर में, और हो सकता है रूस में भी, इकलौता ऐसा स्मारक है, जिसने स्टालिन के स्मारकों को शहीद होते हुए देखा है, और जिस पर “स्टालिन” का नाम बचा है. कोई उसे छू नहीं पाया! छुपा लिया कीरव ने उसे.
पाँचवीं, और ये महत्वपूर्ण है : शिलालेख. एकदम असाधारण शिलालेख:

“हमारी सफ़लताएँ, वाकई में महान हैं. शैतान ही जानता है. अगर इन्सान की तरह कहा जाए, तो शिद्दत से दिल चाहता है – जीने को और ज़िंदा रहने को.”

 ये बात, कि ये शिलालेख एक बोर्ड पर है, जिसे हलाल-टुकड़े करने वाली इमारत में रखी गई प्रेसिंग मशीन के एक महिला और एक पुरुष कर्मचारी पकड़े हुए हैं, “जीने और ज़िंदा रहने” के फ़ॉर्मूले को एक अति विशिष्ठ अर्थ प्रदान करती है, मगर ख़ास बात ये नहीं है. ख़ास बात ये है कि पैडेस्टल्स पर इस तरह से नहीं लिखा जाता. और ये “शैतान ही जानता है” क्या है? किसे जानता है “शैतान”? क्या स्मारक पर ऐसा लिखने की कल्पना की जा सकती है?!.

अपने दादाजी से धरोहर में मुझे कुछ विशिष्ठ किताबें मिलीं. CPSU(B) की XXVIIवीं कॉंग्रेस की शब्दशः रिपोर्ट की एक प्रति, जो मेरे पास है, जिसे एक दुर्लभ चीज़ समझा जा सकता है. बात ये थी, कि पार्टी के सभी सदस्यों को जिनके हाथों में इस तरह की किताबें थीं, संचालक मंडलों की सूचियों से जनता के दुश्मनों के नामों को स्याही की कलम से मिटा देना था, - मेरे दादा ने अपनी मर्ज़ी से काम किया : जनता के दुश्मनों के नाम उन्होंने साधारण पेन्सिल से काट दिए, जिससे वे आसानी से पढ़े जा सकते हैं. सेंट्रल कमिटी के 71 में से 63 नाम काटे जा चुके हैं. तीन – अर्जोनिकीद्ज़े, कुइबीशेव और कीरव के नामों पर पेन्सिल का घेरा बनाया गया है. उनके लिए ये अंतिम काँग्रेस भी थी.

तो, पृष्ठ 258 पर कीरव के भाषण में वे, आशावाद से भरे हुए शब्दों को ढूँढ़ने में ज़्यादा मुश्किल नहीं हुई. भाषण का शीर्षक था “कॉम्रेड स्टालिन की रिपोर्ट – हमारी पूरी पार्टी का कार्यक्रम”. कीरव ने बड़े कठोर और, आज के हिसाब से, डरावने शब्दों का प्रयोग किया, मगर जब बात आलोचना और आत्म-आलोचना तक पहुँची, तो वह अप्रत्याशित रूप से ख़ुश हो गया. आत्म-आलोचना के बारे में उसने कहा (संदर्भ के लिए प्रस्तुत करता हूँ) : “इससे सिर्फ कामों को सुधारने में सहायता मिलेगी, और पार्टी को ये मिथ्यागर्व के ख़तरे से बचाएगी, जिसके बारे में कॉम्रेड स्टालिन ने चेतावनी दी है”. इसके बाद, भावनाओं के आवेग को रोकने में असमर्थ उसके मुँह से फूटा भावनात्मक वाक्य - “शैतान उसे जानता है”.             

मगर सबसे दिलचस्प बात ये है, कि “जीने को और ज़िंदा रहने को” से वाक्य समाप्त नहीं होता! “जीने को और ज़िंदा रहने को” के बाद एक टिप्पणी है. रिपोर्ट में, जैसा कि होना चाहिए, वह इटालिक्स में है और उसे कोष्ठक में रखा गया है : “(हँसी)” ...मगर, ये भी सब कुछ नहीं है – वाक्य जारी रहता है :

...वाकई में, देखिए, क्या हो रहा है. ये तथ्य है!2 और आगे टिप्पणी है, काँग्रेस में प्रदर्शित टिप्पणियों जैसी बिल्कुल नहीं है : “(शोर-गुल भरी तालियाँ)”.. ज़ोरदार नहीं, देर तक नहीं, किसी और तरह की नहीं, बल्कि “शोर-गुल भरी” – किसी अत्यंत असामान्य बात जवाब में). टिप्पणियों को देखते हुए, कीरव ने और तीन बार काँग्रेस को हँसाया था (इस हास्य-व्यंग्य को इस समय हम नहीं समझ सकते), मगर हमारे विषय से इसका कोई ताल्लुक भी नहीं है.      

अगर और गहराई में जाएँ, तो ज्ञात होगा, कि सन् 1936 के अंत में ही शिल्पकार तोम्स्की ने, जैसा कि ऊपर निर्दिष्ट “साहित्यिक लेनिनग्राद” के संवाददाता से हुई उसकी बातचीत से पता चलता है, पैडेस्टल के दर्शनीय भाग पर उसी वाक्य को पूरी शान से पुनः प्रस्तुत करने का निश्चय किया था (मगर, ज़ाहिर है, बिना टिप्पणी के). “स्मारक की ढलाई पर CPSU(B) लेनिनग्राद की क्षेत्रीय समिति के संस्कृति और लेनिनवाद-प्रचार विभाग के प्रमुख कॉम्रेड बी. पी. पोज़ेर्न की सीधी नज़र थी. मेरा अनुमान है, कि उसीने “वाकई में, देखिए, क्या हो रहा है. ये तथ्य है”. इस उद्गार को लिखने की इजाज़त नहीं दी.

    चाहे जो भी हुआ हो, वाक्य के अंत में गहरे अर्थ वाला ढला हुआ पूर्णविराम का चिह्न कुछ और नहीं, बल्कि टिप्पणी (हँसी) को छुपा रहा है. शायद पैडेस्टल पर दिए गए शब्दों को इसी तरह देखना होगा – प्रसन्नता से, हँसते हुए. वैसे भी तोम्स्की की संकल्पना के अनुसार काँसे के कीरव का चेहरा करीब-करीब हँसता हुआ ही है. फिर, जब 21 मार्च 1937को स्मारक का उद्घाटन किया गया, - तो प्रसन्नता जैसी कोई बात ही महसूस ही नहीं हो रही थी....उद्घाटन समारोह की रिपोर्ट उद्धृत करता हूँ, जो बेहद खपत वाले अख़बार “माँस-भीमकाय (Meat Giant)” में छपी थी:
“...पहली पंक्तियों में अर्धवृत्त बनाते हुए बच्चे खड़े हैं – जो माँस पैकिंग संयंत्र के मिडल स्कूल में पढ़ते हैं. वे गा रहे हैं:
“....सर्वहारा, बैरिकेड्स पर,
क्षितिज घिरा पूरा लपटों में...”

ये गीत संघर्ष और विजय का आह्वान देता हुआ प्रतीत होता है. वह जनता के दुश्मनों – त्रोत्स्की- ज़िनोव्येव के क्रांति विरोधी गुटों के बदमाशों के आकस्मिक हमलों के ख़िलाफ़ गरजता हुआ जवाब है – जिन्होंने विश्वासघात से सिर्गेइ मिरोनोविच की ज़िंदगी छीन ली थी.” 3

त्रोत्स्की- ज़िनोव्येव गुट के ख़िलाफ़ सज़ा का अभी ऐलान नहीं हुआ था, मगर “माँस-भीमकाय” में इस तरह के शीर्षक प्रकट होने लगे थे : “ एक-एक करके सभी फ़ासिस्ट केंचुओं को ख़त्म कर देना चाहिए”. स्मारक के उद्घाटन से संबंधित आयोजित मीटिंग से एक सप्ताह पूर्व, संयंत्र में इंजीनियर-टेक्निशियन्स  कार्यकर्ताओं की सभा हुई. आत्म-आलोचना की तर्ज़ पर स्वयम् की आलोचना इसलिए की गई कि आत्म-आलोचना का और, परिणामस्वरूप, सतर्कता का अभाव है : अभी-अभी सॉसेज फ़ैक्ट्री में ख़तरनाक ग्रुप का पर्दाफाश किया गया था, मगर सहयोगी कार्यकर्ताओं द्वारा नहीं, बल्कि राष्ट्रीय आंतरिक-सुरक्षा कमिटी के कर्मचारियों द्वारा.

“कॉम्रेड अलेक्सेयेव ने इंजीनियर-टेक्निशियन्स से हार्दिक अनुरोध किया, कि पृथकतावादी सोच को छोड़ दें, क्रांतिकारी सतर्कता को बढ़ाएँ और दिन प्रतिदिन बोल्शेविज़्म आत्मसात् करें” 4

“बोल्शेविज़्म आत्मसात् करें” ये शब्द हाल ही में हुए प्लेनरी-सेशन में स्टालिन की रिपोर्ट से लिए गए हैं.  

पार्टी के कामकाज की कमियों और त्रोत्स्की तथा अन्य दोमुँहे तत्वों के विनाश के उपायों के बारे में रिपोर्ट” अख़बार “माँस-भीमकाय” ने स्मारक के उद्घाटन के डेढ़ सप्ताह बाद प्रकाशित की. आलोचना और आत्म-आलोचना के प्रचार को नई गति मिली. आर्थिक सम्पत्ति निदेशक अलेक्सेयेव इस बात पर पश्चात्ताप व्यक्त करता है, कि सॉसेज-यूनिट में आंतरिक सुरक्षा कमिटी द्वारा पर्दाफाश किए गए हानिकारक तत्वों को “बचाने चला था”. “मुझे यकीन ही नहीं हो रहा था, कि वे लोग, जो हमारे यहाँ काफ़ी समय से काम कर रहे हैं, सोवियत शासन के प्रति इस तरह का घिनौना काम कर सकते हैं. सिर्फ अभी, सेन्ट्रल कमिटी के प्लेनरी सेशन के निर्णय के बाद और कॉम्रेड स्टालिन द्वारा इशारा किए जाने के बाद, मैं समझा हूँ, कि आर्थिक समस्याओं से जूझते हुए, हम सभी पूंजीवादी घेरे के बारे में भूल गए, क्रांतिकारी वर्ग सतर्कता के बारे में भूल गए...”5 ख़ुद जी.एम. अलेक्सेयेव, माँस-संयंत्र के डाइरेक्टर, का भी कुछ समय बाद दमन किया गया था.

“आलोचना”, “आत्म आलोचना” और “सतर्कता” – ये उस काल के प्रमुख शब्द हैं, जिनके बारे में, कम से कम “माँस-भीमकाय” के संदर्भ से जानकारी प्राप्त हो सकती है.

मेरा ख़याल है कि त्रोत्स्की-ज़िनोव्येव गुट पर चल रहे मुकदमे के दिनों में शिल्पकार त्रोत्स्की (उसीने तो माँस पैकिंग संयन्त्र का डिज़ाइन तैयार किया था) बहुत असहज महसूस करता था. और शिल्पकार तोम्स्की को भी, उसके बाद जब “त्रोत्स्की-ज़िनोव्येव ब्लॉक से अपने संबंधों के कारण उलझ कर” छिटकने वाले तोम्स्की ने, ख़ुद को गोली मार ली थी, कई बार अफ़सोस हुआ था, कि उसने अपने लिए ये छद्म नाम क्यों चुना था. ग्रीशिन ही बना रहता, तो कोई परेशानी ही न होती.

बहुत हुआ दुख भरी बातों के बारे में.

उभरी हुई आकृतियों के बारे में बताना होगा. वे उतनी ही आशावादी हैं, जितना कि काँस्य-कीरव द्वारा दिया गया भाषण.

ये है कीरव, उस समय, जब वह सन् 1933 में मई के महीने में संयंत्र में जा रहा था (अन्य सूत्रों के अनुसार जून में). उन दिनों यूरोप के सबसे बड़े रेफ्रिजरेटर का इस्तेमाल किया जा रहा था. जहाँ तक मैं समझता हूँ, कीरव उस कार्यकर्ता को प्रोत्साहित कर रहा है, जिसने 600 किलो कैलोरी प्रतिघण्टा की शीतक-क्षमता वाले इम्पोर्टेड कम्प्रेसर “बारबिएरी” की तकनीक को आत्मसात् कर लिया है (इस अमोनिया यूनिट की तस्वीरें व्यापारी-अख़बारों में, और विशेष प्रकाशनों में देखी जा सकती हैं).   

अन्य आकृतियों में कीरव नहीं है. यहाँ कार्यकर्ता – स्वतंत्र रूप से, बगैर उसके – बॉयलर “लाब्स” की शुरुआत कर रहे हैं. ये, ज़ाहिर है, सूखी चर्बी अलग करने वाला सेक्शन है, जो हलाल करने-टुकडे करने वाली बिल्डिंग की एक मंज़िल पर है.   

आदमी और औरत – हाथ में फावड़ा लिए. कोयला? ज़ाहिर है, कि संयंत्र में पेचेर्स्की कोयले का इस्तेमाल होता था (लकड़ियाँ धुँआ देने के काम आती थीं). संभावना यही है,कि सिर्फ एक ही बॉयलर का इस्तेमाल हो रहा था, जो दिए गए चित्र में नहीं समा सका था. चर्बी को पिघलाने के लिए ऊष्मा की ज़रूरत होती है.

“खाद्य-उद्योग के प्रेरणास्त्रोत” अनास्तास इवानोविच मिकयान ने, जिसके नाम से मॉस्को का माँस पैकिजिंग जाना जाने वाला था, पार्टी की उसी XXVIIवीं कॉंग्रेस में प्रभावशाली ढंग से कहा था : “...अमेरिका की माँस प्रौद्योगिकी के चमत्कार, हमारी सोवियत मिट्टी में स्थानांतरित हो गए”.

चमत्कार हर जगह चमत्कार हैं.

मगर हमारे यहाँ और भी अद्भुत हैं.
जून 2007
                                 
टिप्पणियाँ
1. साहित्यिक लेनिनग्राद, 5 दिसम्बर 1936
2. सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी की XXVII काँग्रेस. मॉस्को, पार्टी प्रकाशन, 1934, पृ. 258
3, “माँस-भीमकाय”, 22 मार्च 1937
4. एम. चोर्निख. “माँस-भीमकाय”, 22 मार्च 1937
5. “माँस-भीमकाय”, 25 मई 1937, नं. 39 (350).   

गुरुवार, 12 जुलाई 2018

Monuments of Petersburg - 02


मेन्देलेयेव, उसका रहस्य




साल में कम से कम दो बार – बसन्त की परिक्षाएँ समाप्त होने पर और 1 सितम्बर को – टेक्नोलॉजी इन्स्टिट्यूट के छात्र कांसे के बने मेन्देलेयेव की,  जो 19, मॉस्को एवेन्यू इस पते पर बने पार्क में बैठा है, नाक साफ़ करते हैं. मुझे शक है, कि वे किसी केमिकल रीजेन्ट का उपयोग करते हैं.
वैसे तो इन्स्टिट्यूट में उनका अपना मेन्देलेयेव है, जैसे संस्थागत हो, आंगन में, मगर उस मेंदेलेयेव का सिर पाँच मीटर की अप्राप्य ऊँचाई पर है, जो एक भद्दे पैडेस्टल पर स्थित है. यहाँ सीढ़ी की ज़रूरत पड़ती है. शहर वाले मेन्देलेयेव तक, बेशक, सब आसानी से पहुँच सकते हैं.
दढ़ियल, लम्बे बालों वाला द्मित्री इवानोविच विद्यार्थियों द्वारा अपमानित महसूस नहीं करता. धुंधले मौसम में भी चमकती उसकी नाक जंगलीपन से देखती है, मगर इन दिनों में स्मारक के चेहरे का भाव दयालु-भलमनसाहतभरा होता है : ऐह, बेवकूफ़, बेवकूफ़!...
वह आरामकुर्सी पर बैठा है – रौब से, पैर पर पैर रखे, उस घर के छोटे से चौक में, जिसमें कभी ख़ुद रहता था. आसपास की हालत भी, इसीके अनुरूप, बेहद घरेलू है. ये, शायद, शहर का सर्वाधिक घरेलू स्मारक है. सबसे ज़्यादा अगोचर स्मारकों में से एक. करीब से भी गुज़र जाओ, तो नज़र नहीं जायेगी. कुर्सी के नीचे का कबाड़ दिलचस्प है – किताबों का गट्ठा, लपेटे हुए कागज़ों के कुछ मुट्ठे...सब कुछ एकदम विशिष्ट, ठोस, शब्दशः है. यहाँ शब्दशः रूप से “शब्दशः” : कुर्सी के नीचे पड़े हुए वैज्ञानिक ग्रंथों में से एक पर, टेढ़े-मेढ़े अक्षर देखे जा सकते हैं, जिनसे ये शब्द बनते हैं “नाप-तौल के मुख्य कक्ष का वार्षिक इतिहास”. और वैज्ञानिक के पैर पर जो खुला हुआ ग्रंथ पड़ा है उसमें कौनसे अक्षर, कौनसे अंक और सूत्र हैं, कहना मुश्किल है. इसके लिए मॉस्को प्रॉस्पेक्ट पार करके टेक्निकल इन्स्टीट्यूट की कम से कम तीसरी मंज़िल पर चढ़ना होगा और खिड़की से दूरबीन से देखना होगा; मगर पैडेस्टल पर चढ़ना ज़्यादा आसान होगा, वह ऊँचा नहीं है – सिर्फ एक मीटर. हमारे हाथ निराशा ही लगती है. किताब के पन्ने एकदम कोरे हैं. मेन्देलेयेव सिर्फ बहाना बना रहा है, कि वह पढ़ रहा है. यही तो ख़ास बात है. बिना अक्षरों वाली किताब में कोई क्या पढ़ सकता है? (ये मान सकते हैं, कि किताब अभी लिखी नहीं गई है.) कुछ भी नहीं. तो फिर किस काम में व्यस्त है? किसी में भी नहीं. बिल्कुल किसी में भी नहीं. और किताब भी उसने सिर्फ आँख़ को हटाने के लिए खोली है. मुझे मेन्देलेयेव का रहस्य मालूम है. अगर हम द्मित्री इवानोविच के बाएँ हाथ पर ग़ौर करें, तो बड़ा अचरज होगा कि स्मारक हमसे कुछ छुपा रहा है. ज़रा पास चलकर देखते हैं. क्या देखते हैं? हाथ में सिगरेट है! मेन्देलेयेव अभी-अभी कश लेते-लेते रुक गया है और अब अपनी धुँआ छोड़ती हुई सिगरेट छुपाने की कोशिश कर रहा है!
चौंकाने वाली बात है. पीटर्सबुर्ग के स्मारकों के पूरे समाज में मैंने इससे ज़्यादा हृदयस्पर्शी बात नहीं देखी. मृत्यु के बाद की प्रसिद्धी किस काम की, यादगार किस काम की, जब आप सिगरेट भी नहीं पी सकते? शिल्पकार गिन्सबुर्ग इल्या याकव्लेविच जानता था, कि उसने क्या किया है (जब स्मारक का उद्घाटन हो रहा था, तो वह सत्तर पार कर गया था), ये वो, शिक्षाविद्, जिसका अपना एक पैर कब्र में लटक रहा था, महान रसायनज्ञ की एक छोटी से कमज़ोरी की फिक्र कर रहा था : पीने दो सिगरेट बेचारे को! प्रयोगशाला में इजाज़त नहीं है, मगर यहाँ तो पी सकता है. वर्ना तो हमेशा के लिए बैठे-बैठे थक जाएगा.
वैसे, ये ही प्लिखानव का भी शिल्पकार है.
अगर मेन्देलेयेव अपना सिर ज़रा सा दाईं ओर घुमाए, तो यकीनन – बिल्कुल बगल में – कोई सौ कदम दूर, अपने ही नाम वाली इन्स्टीट्यूट के प्रमुख द्वार के सामने, वह प्लिखानव को देखेगा – गिओर्गी वालेन्तिनोविच को, जो रसायनज्ञ नहीं है. मगर, एक दूसरे की ओर देखना स्मारकों के लिए हानिकारक होता है.
हल्के दिल से मेन्देलेयेव का रहस्य बता रहा हूँ, क्योंकि मुझे ज़रूरत से ज़्यादा विश्वास है : सिगरेट वह मुझसे-आपसे नहीं छुपा रहा है (हमें क्या फर्क पड़ता है, हम उसे समझते हैं!...), बल्कि सन् 1932 के टाइप की किसी पाखण्डी कलात्मक परिषद के सदस्यों से छुपा रहा है, जो सिगरेट पीने वाले स्मारक की कल्पना को भी बर्दाश्त करने में अक्षम हैं.
सिर्फ किसी साज़िश की कल्पना करने से ही ऐश-ट्रे की अनुपस्थिति को समझाया जा सकता है. कुछ नहीं कर सकते, द्मित्री इवानोविच को फर्श पर, मतलब लॉन पर ही राख झटकनी पड़ेगी.
2003







परिशिष्ठ
सन् 2003 की डायरी से : 19 जून
                                       
मेन्देलेयेव की नाक चमक रही थी, स्मारक के पास एक औरत चीथड़ा लिए डोल रही थी. मैं पास जाता हूँ : वाकई में स्मारक को पोंछ रही है – जहाँ तक उसका हाथ पहुँच सकता था. मुझे दिलचस्पी हुई, क्या उसे मालूम है, कि नाक कौन साफ़ करता है. बोली : “कैडेट्स. उसके कंधों पर फीते भी चिपकाते हैं”. और मैंने सोचा, टेक्निकल इन्स्टीट्यूट के छात्र होंगे. – “यहाँ टेक्नोलॉजी वाले कहाँ से होने लगे?” – “क्यों नहीं”, मैंने कहा, “रसायनज्ञ जो है”. – “ये रसायनज्ञ है?” औरत को अचरज हुआ. “नहीं तो कौन? ये रहा उसका चार्ट (स्मारक के बाईं ओर वाले घर की सुरक्षा दीवार पर लगी स्मारक-तालिका की ओर इशारा करता हूँ). अब वह मुझे कुछ अविश्वसनीय-सा बताने लगती है. जैसे “पेर्म के पास कैम्प में कोई एक प्रोफेसर बी. बैठा था, जिसने मेन्देलेयेव के चार्ट से भी दो हज़ार ज़्यादा एलिमेन्ट्स की खोज की थी – वो था रसायनज्ञ. मेन्देलेयेव ख़ास तौर से उससे मिलने पेर्म गया था, लिथियम नाम के एलिमेन्ट के बारे में बात करने के लिए. इस सबका सायन्स अकादमी की प्रेसिडेन्ट, मैडम दाश्कोवा से भी कुछ ताल्लुक था.”
“रुकिए,” मैं कहता हूँ, दाश्कोवा रहती थी अठाहरवीं सदी में”
“और मेन्देलेयेव कौन सी सदी में?” औरत सतर्क हो गई.
मैं जवाब देता हूँ: “उन्नीसवीं, बीसवीं सदी के आरंभ में.”
“नहीं,” वह कहती है, अठाहरवीं सदी में!” और आगे जोड़ती है : “आप ही ने उसकी नाक साफ़ की है!”
ये सब वह बड़े तैश से कह रही थी – जैसे, मुझे बेवकूफ़ नहीं बना सकते, मैं सब जानती हूँ. दुबली-पतली, घर की चप्पलें. मुँह में दो दाँत.