षड़यंत्र
ग्रेनाइट के ऊँचे पैडेस्टल पर, जिस
पर कोई भी इबारत नहीं है, स्थित है
ग्रेनाइट की अर्ध-प्रतिमा – उसकी, जिसका व्यक्तित्व कोई
संदेह नहीं उत्पन्न करता.
हाँ,
ये, बेशक, वही है.
वैसे,
इबारत की कमी को घर की दीवार पर उपस्थित स्मारक–फलक ने पूरा कर दिया
है – तो, बूझने की ज़रूरत नहीं पड़ती.
हाँ,
और बूझने की ज़रूरत ही क्या है, अगर स्मारक को किसके
म्यूज़ियम के सामने स्थापित किया गया है, ये सबको मालूम है?
उसीके, जिसका स्मारक है. (ये सच है, कि म्यूज़ियम-क्वार्टर कब का नष्ट कर दिया गया है, और
उसके अदम्य निवासी के स्थान पर अब यहाँ इस सम्पत्ति के पूरी तरह वास्तविक मालिक
रहते हैं.)
और, इस सबके अलावा – और ये मुख्य है – वह सिर्फ स्वयम् से मिलता-जुलता है. ज़्यादा
सही होगा ये कहना - अपनी वैधानिक छबि से.
बल्कि बेहद मिलता है.
“बेहद” – ये है सिर्फ इस
जगह के लिए.
किसी अन्य जगह पर इस
“साम्य” पर ध्यान नहीं जाता (यहाँ उस पर ध्यान जाता है,
मगर सिर्फ हमारे जैसे विचार करने वाले दर्शक का). आम तौर से
“असमानता”, पोर्ट्रेट की विफ़लता ध्यान आकर्षित करती है.
उसका तो यहाँ नामो-निशान नहीं है. और यहीं, ख़ास
तौर से इसी जगह पर “असमानता”, परिचित छबि से विचलन, और अंत में, अपरिचितता महत्वपूर्ण है.
क्योंकि ये स्थान – विशेष
है : यहाँ वह छुपा था, अपनी छबि को इतना बदलकर कि
पहचाना न जा सके, स्वयम् से ज़रा भी साम्य न था.
सेर्दोबोल्स्काया स्ट्रीट,
हाउस नं. 1 – उसका अंतिम षड़यंत्रकारी पडाव. यहाँ, चौथी मंज़िल पर उस क्वार्टर में जिसे बोल्शेविक एम. वी.
फोफनवा ने किराए पर लिया था, लेनिन फिनलैण्ड से आने के बाद
छुप गया था. यहाँ से 24 अप्रैल 1917 की शाम, लगभग रात में, अपने सुरक्षा गार्ड एवम् सम्पर्क
अधिकारी, बत्तीस वर्ष के फिन्निश क्रांतिकारी ऐनो राह्या के
साथ, अपने जैसा न दिखने वाला लेनिन सेर्दोबोल्स्काया-
स्मोल्नी के ऐतिहासिक अभियान पर निकल पड़ा था.
एक विशाल फ़लक “लेनिन का
स्मोल्नी-पथ” जो कुछ समय पूर्व तक हाउस नं 2B
की खाली दीवार को सुशोभित कर रहा था, सड़क के दूसरी ओर
था. पैडेस्टल पर अर्ध-प्रतिमा – उनके लिए है, जो बगल में ही
हैं, मगर एक विशाल फायरवाल शहर से और दुनिया से पूरी
शानो-शौकत के साथ मुख़ातिब थी. खूब चौडी कॉन्क्रीट की स्लैब, जो
नीचे लगी हुई थी, धँसी हुई आकृतियों के माध्यम से उस रात की
यात्रा के पथ को प्रदर्शित करती थी, मगर संरचना का यह भाग उस
सुशोभित घर की हमनाम – ट्राम नं. 2 की खिड़की से ज़्यादा भिन्न नहीं था, जिसका यात्री होने का मुझे ख़ास तौर से अक्सर अपनी जवानी के ख़ुशनुमा दिनों
में मौका मिलता था. दूसरी बात – “पूरी सत्ता सोवियतों को!” इस बैनर के नीचे पूरी
दीवार पर मज़दूरों और सैनिकों के चित्र – वे निश्चयपूर्वक उस फायरवाल के नीचे से
ट्रामगाड़ी की तरफ़ निकल रहे थे, जिसने कार्ल मार्क्स एवेन्यू
से सेर्दोबोल्स्काया स्ट्रीट पर मुड़ने के पहले अपनी गति धीमी कर दी थी. ये,
काले और लाल रंगों में, वाकई में सामने ही थे.
अब वे नहीं हैं. उनकी अनुपस्थिति ख़ासतौर से अब महसूस होती है ( बेशक, उन्हें, जिन्होंने कभी उन्हें देखा था) : एक ही रंग
में रंगी गई दीवार को देखते हुए ये समझना बंद कर देते हो, कि
खिड़कियों की लम्बवत्त शृंखला इतने विशाल चित्र में कैसे समाई होगी. मगर तब भी – इन
संगीनों और बैनर्स वाले लोगों से मुझे क्या लेना-देना था?! कोई
जानी-पहचानी दृश्य-प्रचार की चीज़ देखते हुए मेरी नज़र उदासीनता से उन पर से फिसल गई,
और फ़ौरन हट भी गई. लेनिन निश्चित रूप से उनमें नहीं था. अगर लेनिन
उनके बीच में होता – और उनके आगे होता – जैसा पैलेस स्क्वेयर पर छुट्टियों वाले
दिनों में होता था, जब वह हज़ारों लोगों को विशाल प्रचार मंच
की ओर ले जाता था, और ये सब चार मंज़िला बिल्डिंग के समान
स्तर पर होता था, - तब भी कुछ नहीं बदलता : नज़र उसी तरह
फिसलती, जिससे फ़ौरन दूर हट जाए. मगर कम से कम दिमाग़ में ये
ख़याल तो आ सकता था : लेनिन जा रहा है. जहाँ तक मुझे याद है, उस
मोड़ पर लेनिन से जुड़ी कोई बातें नहीं उभरती थीं. और सड़क के दूसरी ओर वाली ग्रेनाइट
की अर्ध-प्रतिमा पर कभी ध्यान ही नहीं गया.
अभी मैं सोच रहा हूँ :
लेनिन वाली ऐसी ख़ास जगह पर ख़ुद लेनिन के सैनिकों और श्रमिकों को सामने क्यों नहीं
दिखाया गया है?
‘कैसे
संभव था उन्हें दिखाना’, मैं सवाल से ही ख़ुद को जवाब देता
हूँ, ‘जब तमाम ऐतिहासिक परिस्थितियों में, जिनका संबंध क्रांति के उन दिनों में हो रही घटनाओं से था, लेनिन गुप्त रूप से रह रहा था? क्या एंगेल नसीबुलिन,
जिसकी व्यावसायिक ईमानदारी पर कभी संदेह नहीं किया जा सकता – वह कलाकार,
जो पुस्तकों पर अपने रेखाचित्रों के लिए ज़्यादा प्रसिद्ध हैं,
जिसने पूश्किन की रचनाओं के लिए एक अपनी, मौलिक
शैली का विकास किया था, चित्रकार – विशेषकर लघु पुस्तकों का
जो उसके हाथों से सुशोभित थीं, और संग्रहकर्ताओं के लिए ख़ास
तौर से मूल्यवान थीं, - क्या वह विशाल पैनेल पर, जो आज खो गया है, पूरी फायरवाल में लेनिन को लेनिन
के रूप में चित्रित कर सकता था – सैनिकों और श्रमिकों के आगे, जबकि विशिष्ठ ऐतिहासिक परिस्थितियों में लेनिन ने अपने बाह्य-रूप में आमूल
परिवर्तन कर लिया था? मुझे इसमें कोई संदेह नहीं है, कि सन् 1967 में कलाकार से लेनिन की ऐसी छबि की मांग की गई थी जो स्वतःस्पष्ट
हो. मगर यदि उसे कन्स्तान्तिन पित्रोविच के रूप में दिखाना मंज़ूर न हो, तो बेहतर है कि व्लादीमिर इल्यिच को छोड़ दें.
कन्स्तान्तिन
पित्रोविच इवानोव,
साहेबान – कौन नहीं जानता कि, जब जुलाई की घटनाओं के बाद अस्थाई सरकार ने व्लादीमिर इल्यिच उल्यानव
(लेनिन) को अवैध घोषित कर दिया था, तो जाली कागज़ात के आधार
पर वे इसी नाम से रहते थे. लेनिन-इवानोव की फोटो काफ़ी मशहूर
है : कैप पहने, जिसके भीतर से घने बाल निकल रहे हैं (विग),
और बिना दाढ़ी के.
सिर्फ फ़िल्म में
ही लेनिन को लेनिनछाप दाढ़ी में दिखाया गया है, जब वह स्मोल्नी के गलियारों
में तेज़ी से भागता था या जब उसने मंच से किसान-श्रमिक क्रांति की घोषणा की थी,
“जिसके बारे में बोल्शेविक हमेशा बातें करते थे”, - मगर उसके चेहरे पर उस समय दाढ़ी कहाँ से आई, जबकि वह
ठीक स्मोल्नी पहुँचने तक बिना दाढ़ी वाले इवानोव की छबि से बाहर नहीं निकला था?
जहाँ तक ‘विग’
सवाल है, तो स्मोल्नी में घुसकर भी लेनिन विग से
छुटकारा पाने की जल्दी में नहीं था. क्या वह विग के बारे में भूल गया था, उस छबि से निकलना नहीं चाहता था या, हो सकता है,
कि नये युग में नये रूप के साथ प्रवेश करना चाहता था, किसे पता, मगर, यदि बोंच-ब्रूएविच
चतुराई से हस्तक्षेप नहीं करता, तो लेनिन, शायद, वैसे ही, विग पहने,
मंच से भाषण देने लगता. वैसे, बोंच-ब्रूएविच
के संस्मरणों से अंदाज़ लगा सकते हैं, कि लेनिन के विग उतारने
का श्रेय उसी को जाता है.
“विग
उतारिए,”
मैंने फुसफुसाकर व्लादीमिर इल्यिच से कहा.
और वह
फिर वही था, जैसा हमेशा होता है, हमारा
जाना-पहचाना, हमारा प्रिय व्लादीमिर इल्यिच, सिर्फ बेहद छोटी बकरे की सी दाढ़ी वाला.
“लाइए, छुपा
देता हूँ,” मैंने सुझाव दिया, ये देखकर
कि व्लादीमिर इल्यिच ने विग को हाथ में पकड़ा है. “हो सकता है, फिर ज़रूरत पड़ जाए! क्या पता?”
“ख़ैर, मान
लेते हैं” व्लादीमिर इल्यिच ने चालाकी से मुझे आँख़ मारी, “हम
हुकूमत को सचमुच में और हमेशा के लिए ले रहे हैं.
दिलचस्प बात ये
है,
कि “सचमुच में और हमेशा के लिए” इस अभिव्यक्ति का श्रेय लेनिन को
अन्य, बाद में घटित हुई घटनाओं के संदर्भ में दिया जाता है,
ख़ासकर NEP ( New Economic Policy) के आरंभ से –
तभी व्लादीमिर इल्यिच ने “सचमुच में और हमेशा के लिए” इन शब्दों को दुहराया था,
जिन्हें, जैसा कि विदित है, कृषि क्षेत्र के डेप्युटी पीपल्स कमिसार वी. वी. ओसिन्स्की ने कहा था. इसलिए
“सचमुच में और हमेशा के लिए” का प्रयोग मुश्किल से ही इससे पहले कभी किया होगा.
स्मोल्नी के आरंभिक कुछ घण्टों की यादें बोंच-ब्रुएविच ने अक्तूबर क्रांति की
दसवीं सालगिरह पर प्रकाशित की थीं, याददाश्त की कमज़ोरी को
समझ सकते हैं. अजीब बात है, कि ये ऐतिहासिक अभिव्यक्ति,
जिसे चार साल पुराना कर दिया गया था, उसने
नेता के मुख से उस प्रकरण में कहलवाई, जो उसके अपने
व्यक्तित्व से संबंधित था, और, हमारे
लिए दुगुनी उल्लेखनीय बात है, कि ये ‘विग’
से संबंधित प्रकरण से जुड़ी हुई थी. बेशक, लेनिन
ने उस समय कुछ और कहा होगा. मगर ‘विग’ वाला
प्रकरण, बेशक, हुआ था. ऐसी बात
काल्पनिक नहीं हो सकती.
लेनिन पहले भी कई
बार सेर्दोबोल्स्काया पर स्थित षड़यंत्र वाला क्वार्टर छोड़ चुका था – मीटिंग्स और
कॉन्फ्रेन्स दूसरे क्षेत्र में होती थीं. मुख्य प्रवेश द्वार से, जिसके
सामने बाद में स्मारक स्थापित किया गया, वह कम से कम आठ बार
निकला होगा. और हर बार वह ‘विग’ में
होता था.
पिछले कुछ समय से
मैं कार्पोव्का में रहता हूँ – हमारी बिल्डिंग के पीछे वाली गली में औद्योगिक
क्षेत्र शुरू होता है. हर रोज़ पहली मंज़िल की साधारण खिड़कियों के सामने से गुज़रता
हूँ (हमारे मुख्य प्रवेश द्वार से चालीस मीटर्स दूर), जिनके
पीछे 10 अक्टूबर 1917 को बोल्शेविक पार्टी के नेताओं की गुप्त मीटिंग में लेनिन ने,
जो न जाने कहाँ से प्रकट हुआ था (हमें मालूम है, कहाँ से), अपने साथियों को फ़ौरन सशस्त्र विद्रोह की
तैयारी करने के लिए मना लिया था. दो सप्ताह बाद सब कुछ हो गया. मुझे इस बात पर
यकीन करना इतना अजीब लगता है – उस जगह के पास ही रहता हूँ
जहाँ से विश्व-इतिहास को मोड़ने के लिए एक ज़बर्दस्त धक्का दिया गया था. और विश्व
इतिहास के नए पात्र – लेनिन, त्रोत्स्की, स्तालिन (और अन्य कॉम्रेड्स) – उस रात मेरे पड़ोस में नहीं बल्कि मेरे यहाँ
उसे (विश्व इतिहास को) मोड़ की ओर धक्का देने के लिए एकत्रित हुए थे. न जाने क्यों मुझे ये अजीब लगता है...ख़ासकर जब बेघर लोगों को हाथों में
प्लास्टिक के प्याले लिए तीर्थयात्रियों की प्रतीक्षा में फुटपाथ पर बैठे देखता
हूँ, जो कार्पोव्का के उस तरफ़ वाली मॉनेस्ट्री में, जॉन क्रोन्श्ताद्त्स्की के मकबरे पर जाते हुए उन्हें कुछ दान देंगे.... या
जब कोई ‘नन’ शाम को बाल्टी से डामर पर
उड़कर आते हुए कबूतरों के लिए अनाज बिखेरती है... या जब, रेलिंग
पर झुककर, देखते हो, कि कैसे उस
ऐतिहासिक घर से बाहर आती हुई पाइप कीचड़ भरे कार्पोव्का को कुछ और गंदा पानी प्रदान
करती है, जो छोटी, नुकीली पीठ वाली
मछलियों और बत्तखों का ध्यान आकर्षित करता है... ये सब मैं इसलिए कह रहा हूँ,
कि लेनिन उस मीटिंग में ‘विग’ पहने था, और, ख़ुद बिना
दाढ़ी-मूँछों वाला था. इसकी कल्पना करना भी अजीब लगता है. ये नहीं कि इस अवतार में
वह कैसा दिखता था, बल्कि, ये, कि छद्मवेषों के जलसे में इतिहास का निर्माण हुआ. ये अजीब बात है. चाहे
कुछ भी कहिए, मगर, उस मीटिंग में बिना
प्रोटोकोल के उसने जो कुछ कहा, भावी घटनाओं पर पड़ने वाले
उसके प्रभाव को देखते हुए, वह पिछले कुछ समय से कही गई बातों
से ज़्यादा महत्वपूर्ण था : बख़्तरबंद गाड़ी से और बाल्कनी से उसने घोषणाएँ कीं,
मगर यहाँ आपत्ति उठाने वालों को फिर से मनाना था और हिचकिचाने वालों
में विश्वास जगाना था. अपने घुंघराले बालों वाले ‘विग’
में वह तैश से कमेन्येव और ज़िनोव्येव पर आक्रमण कर रहा था (स्तालिन
याद रखेगा), दोनों के टुकड़े-टुकड़े करने पर उतारू था, और ज़िनोव्येव, मगर ज़िनोव्येव भी अपने असली रूप में
नहीं था – वह दाढ़ी में था, जिससे इस क्वार्टर में आने के बाद
शुरू में सबने उसे नहीं पहचाना था (वह भी गुप्तवास में था). न सिर्फ सशस्त्र
क्रांति के प्रश्न पर, बल्कि दाढ़ी के सवाल पर दोनों में
मतभेद था : एक ने दाढ़ी मुंडवा ली थी, दूसरे ने बढ़ा ली थी.
मगर अब
सेर्दोबोल्स्काया स्ट्रीट की तरफ़ चलते हैं.
सेर्दोबोल्स्काया
वाली लेनिन की अर्धप्रतिमा के रचनाकारों को मैं कोई दोष नहीं देना चाहता (शिल्पकार
ई.जी. ज़खारव,
वास्तुकार वी. एफ. बिलोव), मगर फिर भी ये
स्मारक, मेरी नज़र में, सही नहीं है.
सबसे पहले, ये ऐतिहासिक मजबूरी के ख़िलाफ़ गुनाह है. लेनिन को
उस रूप में दर्शाया गया है, जिस रूप में उसे अस्थाई सरकार के
एजेन्ट्स देखना चाहते थे, जिससे उसे पहचान लिया जाए, पकड़ लिया जाए और कैद कर लिया जाए. क्या इल्यिच ने बेकार ही में अपना रूप
बदला था? हालाँकि उसने मजबूरी में ऐसा किया था, मगर प्रसन्नता के, बिना उत्तेजना के नहीं किया था.
पुराना ओवर कोट और फिसलती हुई कैप – ये तो आधी मुसीबत है. उस रात घर से निकलने से
पहले लेनिन ने, जो वैसे भी अपने जैसा नहीं लग रहा था,
गाल पर पट्टी बांध ली थी, वो भी “काफ़ी गंदी”,
अगर ऐनो राह्या पर विश्वास किया जाए, जिसने नेता
की तीसरी बरसी पर इस ऐतिहासिक सैर की यादों के बारे में लिखा था (जैसा कि हम देख
रहे हैं, सन् 1927 में काफ़ी लोगों ने संस्मरण लिखे थे). ‘विग’ के ऊपर गन्दी पट्टी – ये तो, पागलपन है. इसमें कुछ ‘अति’ है,
अव्यवहारिकता है. गन्दा रूमाल चेहरे को उतना छुपाता नहीं है,
जितना उसकी ओर आकर्षित करता है. गन्दे रूमाल में लेनिन – ये बिल्कुल
जोकरपन लगता है. कन्स्तान्तीन इवानोव, सिस्त्रारेत्स्की
आर्म्स फैक्ट्री का काल्पनिक मज़दूर, गाल पर गन्दा रूमाल
बांधकर असल में याकव प्रतज़ानव की फिल्म “फीस्ट ऑफ सेंट यॉर्गन”(1930) में सनकी
गुण्डे का रोल कर रहे ईगर इल्यिन्स्की का पूर्वाभास देता है – उसे भी गाल पर रूमाल
बांधकर पुलिस से छुपना पड़ता है. श्पालेर्नाया स्ट्रीट पर, राह्या
के संस्मरणों के अनुसार, दो घुड़सवार कैडेट्स ने नेताओं को
रोक कर ‘पास’ दिखाने को कहा था. लेनिन
ने पागल होने का नाटक करते हुए उनकी माँग को अनसुना कर दिया और आगे बढ़ गया,
और राह्या, सर्वहारा वर्ग के नेता की ओर से
ध्यान हटाने के लिए, नशे नें धुत् इन्सान जैसा बर्ताव करने
लगा.
"संभव है,” राह्या ने लिखा है, “कि
आख़िरकार उन्होंने हमसे, उनकी राय में आवारा लोगों से, न उलझने का फ़ैसला कर लिया. और हम भी देखने-सुनने में ठेठ आवारा ही लग रहे
थे”.
ठेठ आवारा!...मगर
यहाँ तो बुद्धिजीवी थे, और वो भी ठेठ नहीं..! एक-एक चीज़ मिलती-जुलती थी
– गंजा सिर और दाढ़ी. और ये है उस घर के सामने जहाँ से वह वेष बदले बिना वह निकलता
नहीं था! और स्मारक समर्पित है न सिर्फ लेनिन को, बल्कि
लेनिन-षड़यंत्रकारी को, गुप्त क्वार्टर के निवासी को, जिसके बारे में सेन्ट्रल कमिटी के सदस्यों को कुछ भी पता नहीं था!...नहीं,
प्यारे दोस्तों, आप जो चाहे सोचें, मगर ग्रेनाइट के लेनिन को पहचानने योग्य रूप में सबके सामने प्रदर्शित
करने का मतलब एक ही है – प्रतीकात्मक रूप से, चाहे बाद में
ही सही, मगर सचमुच में छुपे हुए लेनिन का भेद खोलना, भूमिगत –क्रान्तिकारी के अनुभव का निर्मम मज़ाक उड़ाना है. जैसे स्मारक
पुरानी तारीख़ में कह रहा हो, कि किसे गिरफ़्तार करना है – इसी
रूप-रंग के आदमी को : वह यहाँ रहता है, यहीं!
ऊपर से, लेनिन,
जिसे प्रदर्शन के लिए रखा गया है, न सिर्फ
कपटी रूप से अपने आप से मिलता-जुलता है, बल्कि उसके सारे
विचार भी चेहरे पर स्पष्ट हैं : और “अत्याचार की पूरी दुनिया को हम नष्ट कर देंगे”
के बारे में, और “उजले भविष्य” के बारे में. मतलब, इल्यिच को अपनी आंतरिक संरचना समेत दिखाया गया है.
समझ में नहीं आता, कि
अक्टूबर क्रांति की पचासवीं सालगिरह पर स्मारक के निर्माताओं ने इस बारे में क्यों
नहीं सोचा. उनके पास तो लेनिन का भेद खोलने के लिए कोई उद्देश्य नहीं था!
“तो फिर कैसा
होना चाहिए था ये स्मारक?” मुझसे पूछते हैं.
वो चाहे जैसा भी
होता,
मगर उसे स्पष्ट नहीं होना चाहिए. कुछ हद तक लेनिन का स्मारक,
इस जगह पर, मैं समझता हूँ, रहस्यमय होना चाहिए (ये सही है, कि पैडेस्टल पर कोई
इबारत नहीं है). मतलब हाँ, सैद्धांतिक रूप से – स्मारक,
ज़ाहिर है, लेनिन का हो, मगर
बाह्य रूप से विसंगति को देखते हुए – बिल्कुल लेनिन न हो. चाहे दर्शक सोचे,
कि ये स्मारक किसी और का है. चाहे उसे ऐसा लगे कि ये एक्टर ईगर
इल्यिन्स्की के बेहतरीन पात्र का है. और वो, जो ख़यालों में एक्टर इल्यिन्स्की के ग्रेनाइट के सिर से ग्रेनाइट की पट्टी
को हटा सकता, वह इस घुमक्कड़-आवारा की छबि में पूरी तरह सचेत
कार्यकर्ता – कन्स्तान्तीन पेत्रोविच इवानव को पहचान लेता. इवानव में लेनिन को वो
ही पहचान सकता था जिसे इस रहस्य का पता होता.
यही होता महान
षड़यंत्रकारी का असली स्मारक!
चूँकि मौजूदा
अर्ध-प्रतिमा हमारे आदर्श से दूर है, तो लेनिन के स्मोल्नी जाने वाले
रास्ते को भी देखने का लालच होता है, शायद वह रास्ता कोई और
भी हो सकता है, पहले से तैयार, जो
हमारी षड़यंत्र की कल्पनाओं पर प्रकाश डाल सके.
यह ज्ञात है, कि
करीब-करीब आधा रास्ता लेनिन और राह्या ने ट्राम से पार किया था (न जाने क्यों,
ट्राम के विषय से दूर नहीं जा सकते). अपने साथी के संस्मरणों के
अनुसार, लेनिन काफ़ी उत्तेजित थे और, अपनी
जगह पर चुपचाप बैठने के बदले, उन्होंने कण्डक्टर को शहर के
लोगों की मनोदशा के बारे में सवाल पूछ-पूछ कर हैरान कर दिया. क्वार्टर की स्वामिनी
फ़ोफनवा अप्रत्यक्ष रूप से इल्यिच की हालत का वर्णन करती है, जिसे
याद है, कि लेनिन उस दिन इतने परेशान थे, कि उन्होंने कुछ भी नहीं खाया था. सोचता हूँ, कि वह
और भी परेशान हो गया होते, अगर उन्हें यह पता चलता, कि वो एवेन्यू जहाँ से ट्रामगाड़ी में चढ़े थे, जल्दी
ही कार्ल मार्क्स एवेन्यू कहलाने वाला है (मगर, बेशक,
ये जानकर और भी घबरा जाते कि हमेशा के लिए नहीं). जब ट्राम
बत्किन्स्काया स्ट्रीट पर पार्क की ओर जाने के लिए मुड़ी, तो
हमारे नेता उतर गए.
बत्किन्स्काया
स्ट्रीट और ग्रेट सम्प्सोनियेव्स्की एवेन्यू वाले कोने पर, जैसा
कि सबको पता है, काँसे का बोत्किन खड़ा है. वो जैसे एक ओर हट
गया है, चेहरा अपने क्लिनिक की ओर मोड़ लिया है, और शहर के निवासियों की ओर पीठ है – कोई ये भी समझ सकता है, कि वह अनचाहे लोगों से मुँह छुपा रहा है. और स्टेथोस्कोप को पीठ के पीछे
इस तरह पकड़ रखा है, ताकि हम देख सकें : जैसे, मैं डॉक्टर हूँ, डॉक्टर हूँ मैं, कोई और नहीं (क्रांतिकारी नहीं). मगर नहीं! हम ये शक नहीं करेंगे, कि बोत्किन के रूप में ये लेनिन है. ये वाकई में बोत्किन है. ऊपर से वह
यहाँ अक्टूबर क्रांति से नौ साल पहले प्रकट हुआ था.
रोमांचकारी ढंग
से फिनलैण्ड-ब्रिज को पार करने के बाद लेनिन और राह्या श्पालेर्नाया पहुँचे.
आज लेनिन के स्मोल्नी
वाले रास्ते पर चलते हुए श्पालेर्नाया में हमें दो स्मारक दिखाई देते हैं, जिनका
उद्घाटन क्रमशः सन् 1981 और 2007 में हुआ था. ये देर्झिन्स्की और जनरल ब्रूसिलव हैं.
इनमें से किसी में भी गुप्त लेनिन का शक नहीं होता. निश्चित रूप से वे जिनको समर्पित
हैं, उन्हींके स्मारक हैं.
और ये है सुशोभित
शिल्प - “पीटर्सबुर्ग का पानी ढोने वाला”, इस पर ध्यान दिया जा सकता है.
“पीटर्सबुर्ग वाटर वर्ल्ड” म्यूज़ियम के प्रवेश द्वार के पास है, जो भूतपूर्व वाटर-स्टेशन में है. तो, कहना क्या है...पहली
बात, पानी ढोने वाला अपनी जगह पर नहीं खड़ा है, बल्कि, जैसे श्पालेर्नाया पर जा रहा है, वो भी स्मोल्नी की दिशा में. दूसरी बात...
मगर आप, बेशक,
पूछेंगे...आप, बेशक, पूछेंगे
: और ये गाड़ी पर ड्रम क्यों है? वो इसे वहाँ, स्मोल्नी क्यों ले जा रहा है? और ये कुत्ता कहाँ से आ
गया? और उसकी नाक इतनी तीखी क्यों है? और
ख़ास बात – दाढ़ी, वो कहाँ आई?
मैं ख़ुद भी आपसे इसी
तरह के दसियों सवाल पूछ सकता हूँ. “क्यों?”, “किसलिए?”, “कहाँ से?”
मगर मैं किसी भी बात
की पुष्टि नहीं कर रहा हूँ.
मैंने सिर्फ उतना
ही कहा है,
जिसे ग़ौर से देखने की ज़रूरत है.





