शुक्रवार, 23 नवंबर 2018

Conspiracy - 06



षड़यंत्र




ग्रेनाइट के ऊँचे पैडेस्टल पर, जिस पर कोई भी इबारत नहीं है, स्थित है ग्रेनाइट की अर्ध-प्रतिमा – उसकी, जिसका व्यक्तित्व कोई संदेह नहीं उत्पन्न करता.

हाँ, ये, बेशक, वही है.

वैसे, इबारत की कमी को घर की दीवार पर उपस्थित स्मारक–फलक ने पूरा कर दिया है – तो, बूझने की ज़रूरत नहीं पड़ती.  

हाँ, और बूझने की ज़रूरत ही क्या है, अगर स्मारक को किसके म्यूज़ियम के सामने स्थापित किया गया है, ये सबको मालूम है? उसीके, जिसका स्मारक है. (ये सच है, कि म्यूज़ियम-क्वार्टर कब का नष्ट कर दिया गया है, और उसके अदम्य निवासी के स्थान पर अब यहाँ इस सम्पत्ति के पूरी तरह वास्तविक मालिक रहते हैं.)

और, इस सबके अलावा – और ये मुख्य है – वह सिर्फ स्वयम् से मिलता-जुलता है. ज़्यादा सही होगा ये कहना - अपनी वैधानिक छबि से.

बल्कि बेहद मिलता है.

“बेहद” – ये है सिर्फ इस जगह के लिए.

किसी अन्य जगह पर इस “साम्य” पर ध्यान नहीं जाता (यहाँ उस पर ध्यान जाता है, मगर सिर्फ हमारे जैसे विचार करने वाले दर्शक का). आम तौर से “असमानता”, पोर्ट्रेट की विफ़लता ध्यान आकर्षित करती है. उसका तो यहाँ नामो-निशान नहीं है. और यहीं, ख़ास तौर से इसी जगह पर “असमानता”, परिचित छबि से विचलन, और अंत में, अपरिचितता महत्वपूर्ण है.

क्योंकि ये स्थान – विशेष है : यहाँ वह छुपा था, अपनी छबि को इतना बदलकर कि पहचाना न जा सके, स्वयम् से ज़रा भी साम्य न था.

सेर्दोबोल्स्काया स्ट्रीट, हाउस नं. 1 – उसका अंतिम षड़यंत्रकारी पडाव. यहाँ, चौथी मंज़िल पर उस क्वार्टर में जिसे बोल्शेविक एम. वी. फोफनवा ने किराए पर लिया था, लेनिन फिनलैण्ड से आने के बाद छुप गया था. यहाँ से 24 अप्रैल 1917 की शाम, लगभग रात में, अपने सुरक्षा गार्ड एवम् सम्पर्क अधिकारी, बत्तीस वर्ष के फिन्निश क्रांतिकारी ऐनो राह्या के साथ, अपने जैसा न दिखने वाला लेनिन सेर्दोबोल्स्काया- स्मोल्नी के ऐतिहासिक अभियान पर निकल पड़ा था.

एक विशाल फ़लक “लेनिन का स्मोल्नी-पथ” जो कुछ समय पूर्व तक हाउस नं 2B की खाली दीवार को सुशोभित कर रहा था, सड़क के दूसरी ओर था. पैडेस्टल पर अर्ध-प्रतिमा – उनके लिए है, जो बगल में ही हैं, मगर एक विशाल फायरवाल शहर से और दुनिया से पूरी शानो-शौकत के साथ मुख़ातिब थी. खूब चौडी कॉन्क्रीट की स्लैब, जो नीचे लगी हुई थी, धँसी हुई आकृतियों के माध्यम से उस रात की यात्रा के पथ को प्रदर्शित करती थी, मगर संरचना का यह भाग उस सुशोभित घर की हमनाम – ट्राम नं. 2 की खिड़की से ज़्यादा भिन्न नहीं था, जिसका यात्री होने का मुझे ख़ास तौर से अक्सर अपनी जवानी के ख़ुशनुमा दिनों में मौका मिलता था. दूसरी बात – “पूरी सत्ता सोवियतों को!” इस बैनर के नीचे पूरी दीवार पर मज़दूरों और सैनिकों के चित्र – वे निश्चयपूर्वक उस फायरवाल के नीचे से ट्रामगाड़ी की तरफ़ निकल रहे थे, जिसने कार्ल मार्क्स एवेन्यू से सेर्दोबोल्स्काया स्ट्रीट पर मुड़ने के पहले अपनी गति धीमी कर दी थी. ये, काले और लाल रंगों में, वाकई में सामने ही थे. अब वे नहीं हैं. उनकी अनुपस्थिति ख़ासतौर से अब महसूस होती है ( बेशक, उन्हें, जिन्होंने कभी उन्हें देखा था) : एक ही रंग में रंगी गई दीवार को देखते हुए ये समझना बंद कर देते हो, कि खिड़कियों की लम्बवत्त शृंखला इतने विशाल चित्र में कैसे समाई होगी. मगर तब भी – इन संगीनों और बैनर्स वाले लोगों से मुझे क्या लेना-देना था?! कोई जानी-पहचानी दृश्य-प्रचार की चीज़ देखते हुए मेरी नज़र उदासीनता से उन पर से फिसल गई, और फ़ौरन हट भी गई. लेनिन निश्चित रूप से उनमें नहीं था. अगर लेनिन उनके बीच में होता – और उनके आगे होता – जैसा पैलेस स्क्वेयर पर छुट्टियों वाले दिनों में होता था, जब वह हज़ारों लोगों को विशाल प्रचार मंच की ओर ले जाता था, और ये सब चार मंज़िला बिल्डिंग के समान स्तर पर होता था, - तब भी कुछ नहीं बदलता : नज़र उसी तरह फिसलती, जिससे फ़ौरन दूर हट जाए. मगर कम से कम दिमाग़ में ये ख़याल तो आ सकता था : लेनिन जा रहा है. जहाँ तक मुझे याद है, उस मोड़ पर लेनिन से जुड़ी कोई बातें नहीं उभरती थीं. और सड़क के दूसरी ओर वाली ग्रेनाइट की अर्ध-प्रतिमा पर कभी ध्यान ही नहीं गया.

अभी मैं सोच रहा हूँ : लेनिन वाली ऐसी ख़ास जगह पर ख़ुद लेनिन के सैनिकों और श्रमिकों को सामने क्यों नहीं दिखाया गया है?

कैसे संभव था उन्हें दिखाना’, मैं सवाल से ही ख़ुद को जवाब देता हूँ, ‘जब तमाम ऐतिहासिक परिस्थितियों में, जिनका संबंध क्रांति के उन दिनों में हो रही घटनाओं से था, लेनिन गुप्त रूप से रह रहा था? क्या एंगेल नसीबुलिन, जिसकी व्यावसायिक ईमानदारी पर कभी संदेह नहीं किया जा सकता – वह कलाकार, जो पुस्तकों पर अपने रेखाचित्रों के लिए ज़्यादा प्रसिद्ध हैं, जिसने पूश्किन की रचनाओं के लिए एक अपनी, मौलिक शैली का विकास किया था, चित्रकार – विशेषकर लघु पुस्तकों का जो उसके हाथों से सुशोभित थीं, और संग्रहकर्ताओं के लिए ख़ास तौर से मूल्यवान थीं, - क्या वह विशाल पैनेल पर, जो आज खो गया है, पूरी फायरवाल में लेनिन को लेनिन के रूप में चित्रित कर सकता था – सैनिकों और श्रमिकों के आगे, जबकि विशिष्ठ ऐतिहासिक परिस्थितियों में लेनिन ने अपने बाह्य-रूप में आमूल परिवर्तन कर लिया था? मुझे इसमें कोई संदेह नहीं है, कि सन् 1967 में कलाकार से लेनिन की ऐसी छबि की मांग की गई थी जो स्वतःस्पष्ट हो. मगर यदि उसे कन्स्तान्तिन पित्रोविच के रूप में दिखाना मंज़ूर न हो, तो बेहतर है कि व्लादीमिर इल्यिच को छोड़ दें.                    
कन्स्तान्तिन पित्रोविच इवानोव, साहेबान कौन नहीं जानता कि, जब जुलाई की घटनाओं के बाद अस्थाई सरकार ने व्लादीमिर इल्यिच उल्यानव (लेनिन) को अवैध घोषित कर दिया था, तो जाली कागज़ात के आधार पर वे इसी नाम से रहते थे. लेनिन-इवानोव की फोटो काफ़ी मशहूर है : कैप पहने, जिसके भीतर से घने बाल निकल रहे हैं (विग), और बिना दाढ़ी के.

सिर्फ फ़िल्म में ही लेनिन को लेनिनछाप दाढ़ी में दिखाया गया है, जब वह स्मोल्नी के गलियारों में तेज़ी से भागता था या जब उसने मंच से किसान-श्रमिक क्रांति की घोषणा की थी, “जिसके बारे में बोल्शेविक हमेशा बातें करते थे”, - मगर उसके चेहरे पर उस समय दाढ़ी कहाँ से आई, जबकि वह ठीक स्मोल्नी पहुँचने तक बिना दाढ़ी वाले इवानोव की छबि से बाहर नहीं निकला था?

जहाँ तक विगसवाल है, तो स्मोल्नी में घुसकर भी लेनिन विग से छुटकारा पाने की जल्दी में नहीं था. क्या वह विग के बारे में भूल गया था, उस छबि से निकलना नहीं चाहता था या, हो सकता है, कि नये युग में नये रूप के साथ प्रवेश करना चाहता था, किसे पता, मगर, यदि बोंच-ब्रूएविच चतुराई से हस्तक्षेप नहीं करता, तो लेनिन, शायद, वैसे ही, विग पहने, मंच से भाषण देने लगता. वैसे, बोंच-ब्रूएविच के संस्मरणों से अंदाज़ लगा सकते हैं, कि लेनिन के विग उतारने का श्रेय उसी को जाता है.

“विग उतारिए,” मैंने फुसफुसाकर व्लादीमिर इल्यिच से कहा.
और वह फिर वही था, जैसा हमेशा होता है, हमारा जाना-पहचाना, हमारा प्रिय व्लादीमिर इल्यिच, सिर्फ बेहद छोटी बकरे की सी दाढ़ी वाला.
“लाइए, छुपा देता हूँ,” मैंने सुझाव दिया, ये देखकर कि व्लादीमिर इल्यिच ने विग को हाथ में पकड़ा है. “हो सकता है, फिर ज़रूरत पड़ जाए! क्या पता?”
“ख़ैर, मान लेते हैं” व्लादीमिर इल्यिच ने चालाकी से मुझे आँख़ मारी, “हम हुकूमत को सचमुच में और हमेशा के लिए ले रहे हैं.

दिलचस्प बात ये है, कि “सचमुच में और हमेशा के लिए” इस अभिव्यक्ति का श्रेय लेनिन को अन्य, बाद में घटित हुई घटनाओं के संदर्भ में दिया जाता है, ख़ासकर NEP ( New Economic Policy) के आरंभ से – तभी व्लादीमिर इल्यिच ने “‌सचमुच में और हमेशा के लिए” इन शब्दों को दुहराया था, जिन्हें, जैसा कि विदित है, कृषि क्षेत्र के डेप्युटी पीपल्स कमिसार वी. वी. ओसिन्स्की ने कहा था. इसलिए “सचमुच में और हमेशा के लिए” का प्रयोग मुश्किल से ही इससे पहले कभी किया होगा. स्मोल्नी के आरंभिक कुछ घण्टों की यादें बोंच-ब्रुएविच ने अक्तूबर क्रांति की दसवीं सालगिरह पर प्रकाशित की थीं, याददाश्त की कमज़ोरी को समझ सकते हैं. अजीब बात है, कि ये ऐतिहासिक अभिव्यक्ति, जिसे चार साल पुराना कर दिया गया था, उसने नेता के मुख से उस प्रकरण में कहलवाई, जो उसके अपने व्यक्तित्व से संबंधित था, और, हमारे लिए दुगुनी उल्लेखनीय बात है, कि ये विगसे संबंधित प्रकरण से जुड़ी हुई थी. बेशक, लेनिन ने उस समय कुछ और कहा होगा. मगर विगवाला प्रकरण, बेशक, हुआ था. ऐसी बात काल्पनिक नहीं हो सकती. 

लेनिन पहले भी कई बार सेर्दोबोल्स्काया पर स्थित षड़यंत्र वाला क्वार्टर छोड़ चुका था – मीटिंग्स और कॉन्फ्रेन्स दूसरे क्षेत्र में होती थीं. मुख्य प्रवेश द्वार से, जिसके सामने बाद में स्मारक स्थापित किया गया, वह कम से कम आठ बार निकला होगा. और हर बार वह विगमें होता था.

पिछले कुछ समय से मैं कार्पोव्का में रहता हूँ – हमारी बिल्डिंग के पीछे वाली गली में औद्योगिक क्षेत्र शुरू होता है. हर रोज़ पहली मंज़िल की साधारण खिड़कियों के सामने से गुज़रता हूँ (हमारे मुख्य प्रवेश द्वार से चालीस मीटर्स दूर), जिनके पीछे 10 अक्टूबर 1917 को बोल्शेविक पार्टी के नेताओं की गुप्त मीटिंग में लेनिन ने, जो न जाने कहाँ से प्रकट हुआ था (हमें मालूम है, कहाँ से), अपने साथियों को फ़ौरन सशस्त्र विद्रोह की तैयारी करने के लिए मना लिया था. दो सप्ताह बाद सब कुछ हो गया. मुझे इस बात पर यकीन करना इतना अजीब लगता है उस जगह के पास ही रहता हूँ जहाँ से विश्व-इतिहास को मोड़ने के लिए एक ज़बर्दस्त धक्का दिया गया था. और विश्व इतिहास के नए पात्र – लेनिन, त्रोत्स्की, स्तालिन (और अन्य कॉम्रेड्स) – उस रात मेरे पड़ोस में नहीं बल्कि मेरे यहाँ उसे (विश्व इतिहास को) मोड़ की ओर धक्का देने के लिए एकत्रित हुए थे. न जाने क्यों मुझे ये अजीब लगता है...ख़ासकर जब बेघर लोगों को हाथों में प्लास्टिक के प्याले लिए तीर्थयात्रियों की प्रतीक्षा में फुटपाथ पर बैठे देखता हूँ, जो कार्पोव्का के उस तरफ़ वाली मॉनेस्ट्री में, जॉन क्रोन्श्ताद्त्स्की के मकबरे पर जाते हुए उन्हें कुछ दान देंगे.... या जब कोई ननशाम को बाल्टी से डामर पर उड़कर आते हुए कबूतरों के लिए अनाज बिखेरती है... या जब, रेलिंग पर झुककर, देखते हो, कि कैसे उस ऐतिहासिक घर से बाहर आती हुई पाइप कीचड़ भरे कार्पोव्का को कुछ और गंदा पानी प्रदान करती है, जो छोटी, नुकीली पीठ वाली मछलियों और बत्तखों का ध्यान आकर्षित करता है... ये सब मैं इसलिए कह रहा हूँ, कि लेनिन उस मीटिंग में विगपहने था, और, ख़ुद बिना दाढ़ी-मूँछों वाला था. इसकी कल्पना करना भी अजीब लगता है. ये नहीं कि इस अवतार में वह कैसा दिखता था, बल्कि, ये, कि छद्मवेषों के जलसे में इतिहास का निर्माण हुआ. ये अजीब बात है. चाहे कुछ भी कहिए, मगर, उस मीटिंग में बिना प्रोटोकोल के उसने जो कुछ कहा, भावी घटनाओं पर पड़ने वाले उसके प्रभाव को देखते हुए, वह पिछले कुछ समय से कही गई बातों से ज़्यादा महत्वपूर्ण था : बख़्तरबंद गाड़ी से और बाल्कनी से उसने घोषणाएँ कीं, मगर यहाँ आपत्ति उठाने वालों को फिर से मनाना था और हिचकिचाने वालों में विश्वास जगाना था. अपने घुंघराले बालों वाले विगमें वह तैश से कमेन्येव और ज़िनोव्येव पर आक्रमण कर रहा था (स्तालिन याद रखेगा), दोनों के टुकड़े-टुकड़े करने पर उतारू था, और ज़िनोव्येव, मगर ज़िनोव्येव भी अपने असली रूप में नहीं था – वह दाढ़ी में था, जिससे इस क्वार्टर में आने के बाद शुरू में सबने उसे नहीं पहचाना था (वह भी गुप्तवास में था). न सिर्फ सशस्त्र क्रांति के प्रश्न पर, बल्कि दाढ़ी के सवाल पर दोनों में मतभेद था : एक ने दाढ़ी मुंडवा ली थी, दूसरे ने बढ़ा ली थी.

मगर अब सेर्दोबोल्स्काया स्ट्रीट की तरफ़ चलते हैं.

सेर्दोबोल्स्काया वाली लेनिन की अर्धप्रतिमा के रचनाकारों को मैं कोई दोष नहीं देना चाहता (शिल्पकार ई.जी. ज़खारव, वास्तुकार वी. एफ. बिलोव), मगर फिर भी ये स्मारक, मेरी नज़र में, सही नहीं है. सबसे पहले, ये ऐतिहासिक मजबूरी के ख़िलाफ़ गुनाह है. लेनिन को उस रूप में दर्शाया गया है, जिस रूप में उसे अस्थाई सरकार के एजेन्ट्स देखना चाहते थे, जिससे उसे पहचान लिया जाए, पकड़ लिया जाए और कैद कर लिया जाए. क्या इल्यिच ने बेकार ही में अपना रूप बदला था? हालाँकि उसने मजबूरी में ऐसा किया था, मगर प्रसन्नता के, बिना उत्तेजना के नहीं किया था. पुराना ओवर कोट और फिसलती हुई कैप – ये तो आधी मुसीबत है. उस रात घर से निकलने से पहले लेनिन ने, जो वैसे भी अपने जैसा नहीं लग रहा था, गाल पर पट्टी बांध ली थी, वो भी “काफ़ी गंदी”, अगर ऐनो राह्या पर विश्वास किया जाए, जिसने नेता की तीसरी बरसी पर इस ऐतिहासिक सैर की यादों के बारे में लिखा था (जैसा कि हम देख रहे हैं, सन् 1927 में काफ़ी लोगों ने संस्मरण लिखे थे). विगके ऊपर गन्दी पट्टी – ये तो, पागलपन है. इसमें कुछ अतिहै, अव्यवहारिकता है. गन्दा रूमाल चेहरे को उतना छुपाता नहीं है, जितना उसकी ओर आकर्षित करता है. गन्दे रूमाल में लेनिन – ये बिल्कुल जोकरपन लगता है. कन्स्तान्तीन इवानोव, सिस्त्रारेत्स्की आर्म्स फैक्ट्री का काल्पनिक मज़दूर, गाल पर गन्दा रूमाल बांधकर असल में याकव प्रतज़ानव की फिल्म “फीस्ट ऑफ सेंट यॉर्गन”(1930) में सनकी गुण्डे का रोल कर रहे ईगर इल्यिन्स्की का पूर्वाभास देता है – उसे भी गाल पर रूमाल बांधकर पुलिस से छुपना पड़ता है. श्पालेर्नाया स्ट्रीट पर, राह्या के संस्मरणों के अनुसार, दो घुड़सवार कैडेट्स ने नेताओं को रोक कर पासदिखाने को कहा था. लेनिन ने पागल होने का नाटक करते हुए उनकी माँग को अनसुना कर दिया और आगे बढ़ गया, और राह्या, सर्वहारा वर्ग के नेता की ओर से ध्यान हटाने के लिए, नशे नें धुत् इन्सान जैसा बर्ताव करने लगा. 

"संभव है,” राह्या ने लिखा है, “कि आख़िरकार उन्होंने हमसे, उनकी राय में आवारा लोगों से, न उलझने का फ़ैसला कर लिया. और हम भी देखने-सुनने में ठेठ आवारा ही लग रहे थे”.

ठेठ आवारा!...मगर यहाँ तो बुद्धिजीवी थे, और वो भी ठेठ नहीं..! एक-एक चीज़ मिलती-जुलती थी – गंजा सिर और दाढ़ी. और ये है उस घर के सामने जहाँ से वह वेष बदले बिना वह निकलता नहीं था! और स्मारक समर्पित है न सिर्फ लेनिन को, बल्कि लेनिन-षड़यंत्रकारी को, गुप्त क्वार्टर के निवासी को, जिसके बारे में सेन्ट्रल कमिटी के सदस्यों को कुछ भी पता नहीं था!...नहीं, प्यारे दोस्तों, आप जो चाहे सोचें, मगर ग्रेनाइट के लेनिन को पहचानने योग्य रूप में सबके सामने प्रदर्शित करने का मतलब एक ही है – प्रतीकात्मक रूप से, चाहे बाद में ही सही, मगर सचमुच में छुपे हुए लेनिन का भेद खोलना, भूमिगत –क्रान्तिकारी के अनुभव का निर्मम मज़ाक उड़ाना है. जैसे स्मारक पुरानी तारीख़ में कह रहा हो, कि किसे गिरफ़्तार करना है – इसी रूप-रंग के आदमी को : वह यहाँ रहता है, यहीं!

ऊपर से, लेनिन, जिसे प्रदर्शन के लिए रखा गया है, न सिर्फ कपटी रूप से अपने आप से मिलता-जुलता है, बल्कि उसके सारे विचार भी चेहरे पर स्पष्ट हैं : और “अत्याचार की पूरी दुनिया को हम नष्ट कर देंगे” के बारे में, और “उजले भविष्य” के बारे में. मतलब, इल्यिच को अपनी आंतरिक संरचना समेत दिखाया गया है.

समझ में नहीं आता, कि अक्टूबर क्रांति की पचासवीं सालगिरह पर स्मारक के निर्माताओं ने इस बारे में क्यों नहीं सोचा. उनके पास तो लेनिन का भेद खोलने के लिए कोई उद्देश्य नहीं था!

“तो फिर कैसा होना चाहिए था ये स्मारक?” मुझसे पूछते हैं.

वो चाहे जैसा भी होता, मगर उसे स्पष्ट नहीं होना चाहिए. कुछ हद तक लेनिन का स्मारक, इस जगह पर, मैं समझता हूँ, रहस्यमय होना चाहिए (ये सही है, कि पैडेस्टल पर कोई इबारत नहीं है). मतलब हाँ, सैद्धांतिक रूप से – स्मारक, ज़ाहिर है, लेनिन का हो, मगर बाह्य रूप से विसंगति को देखते हुए – बिल्कुल लेनिन न हो. चाहे दर्शक सोचे, कि ये स्मारक किसी और का है. चाहे उसे ऐसा लगे कि ये एक्टर ईगर इल्यिन्स्की के बेहतरीन पात्र का है. और वो, जो ख़यालों में एक्टर इल्यिन्स्की के ग्रेनाइट के सिर से ग्रेनाइट की पट्टी को हटा सकता, वह इस घुमक्कड़-आवारा की छबि में पूरी तरह सचेत कार्यकर्ता – कन्स्तान्तीन पेत्रोविच इवानव को पहचान लेता. इवानव में लेनिन को वो ही पहचान सकता था जिसे इस रहस्य का पता होता.

यही होता महान षड़यंत्रकारी का असली स्मारक!

चूँकि मौजूदा अर्ध-प्रतिमा हमारे आदर्श से दूर है, तो लेनिन के स्मोल्नी जाने वाले रास्ते को भी देखने का लालच होता है, शायद वह रास्ता कोई और भी हो सकता है, पहले से तैयार, जो हमारी षड़यंत्र की कल्पनाओं पर प्रकाश डाल सके. 

यह ज्ञात है, कि करीब-करीब आधा रास्ता लेनिन और राह्या ने ट्राम से पार किया था (न जाने क्यों, ट्राम के विषय से दूर नहीं जा सकते). अपने साथी के संस्मरणों के अनुसार, लेनिन काफ़ी उत्तेजित थे और, अपनी जगह पर चुपचाप बैठने के बदले, उन्होंने कण्डक्टर को शहर के लोगों की मनोदशा के बारे में सवाल पूछ-पूछ कर हैरान कर दिया. क्वार्टर की स्वामिनी फ़ोफनवा अप्रत्यक्ष रूप से इल्यिच की हालत का वर्णन करती है, जिसे याद है, कि लेनिन उस दिन इतने परेशान थे, कि उन्होंने कुछ भी नहीं खाया था. सोचता हूँ, कि वह और भी परेशान हो गया होते, अगर उन्हें यह पता चलता, कि वो एवेन्यू जहाँ से ट्रामगाड़ी में चढ़े थे, जल्दी ही कार्ल मार्क्स एवेन्यू कहलाने वाला है (मगर, बेशक, ये जानकर और भी घबरा जाते कि हमेशा के लिए नहीं). जब ट्राम बत्किन्स्काया स्ट्रीट पर पार्क की ओर जाने के लिए मुड़ी, तो हमारे नेता उतर गए.    

बत्किन्स्काया स्ट्रीट और ग्रेट सम्प्सोनियेव्स्की एवेन्यू वाले कोने पर, जैसा कि सबको पता है, काँसे का बोत्किन खड़ा है. वो जैसे एक ओर हट गया है, चेहरा अपने क्लिनिक की ओर मोड़ लिया है, और शहर के निवासियों की ओर पीठ है – कोई ये भी समझ सकता है, कि वह अनचाहे लोगों से मुँह छुपा रहा है. और स्टेथोस्कोप को पीठ के पीछे इस तरह पकड़ रखा है, ताकि हम देख सकें : जैसे, मैं डॉक्टर हूँ, डॉक्टर हूँ मैं, कोई और नहीं (क्रांतिकारी नहीं). मगर नहीं! हम ये शक नहीं करेंगे, कि बोत्किन के रूप में ये लेनिन है. ये वाकई में बोत्किन है. ऊपर से वह यहाँ अक्टूबर क्रांति से नौ साल पहले प्रकट हुआ था.

रोमांचकारी ढंग से फिनलैण्ड-ब्रिज को पार करने के बाद लेनिन और राह्या श्पालेर्नाया पहुँचे.

आज लेनिन के स्मोल्नी वाले रास्ते पर चलते हुए श्पालेर्नाया में हमें दो स्मारक दिखाई देते हैं, जिनका उद्घाटन क्रमशः सन् 1981 और 2007 में हुआ था. ये देर्झिन्स्की और जनरल ब्रूसिलव हैं. इनमें से किसी में भी गुप्त लेनिन का शक नहीं होता. निश्चित रूप से वे जिनको समर्पित हैं, उन्हींके स्मारक हैं.

और ये है सुशोभित शिल्प - “पीटर्सबुर्ग का पानी ढोने वाला”, इस पर ध्यान दिया जा सकता है. “पीटर्सबुर्ग वाटर वर्ल्ड” म्यूज़ियम के प्रवेश द्वार के पास है, जो भूतपूर्व वाटर-स्टेशन में है. तो, कहना क्या है...पहली बात, पानी ढोने वाला अपनी जगह पर नहीं खड़ा है, बल्कि, जैसे श्पालेर्नाया पर जा रहा है, वो भी स्मोल्नी की दिशा में. दूसरी बात...

मगर आप, बेशक, पूछेंगे...आप, बेशक, पूछेंगे : और ये गाड़ी पर ड्रम क्यों है? वो इसे वहाँ, स्मोल्नी क्यों ले जा रहा है? और ये कुत्ता कहाँ से आ गया? और उसकी नाक इतनी तीखी क्यों है? और ख़ास बात – दाढ़ी, वो कहाँ आई?

मैं ख़ुद भी आपसे इसी तरह के दसियों सवाल पूछ सकता हूँ. “क्यों?”, “किसलिए?”, “कहाँ से?”   
मगर मैं किसी भी बात की पुष्टि नहीं कर रहा हूँ.

मैंने सिर्फ उतना ही कहा है, जिसे ग़ौर से देखने की ज़रूरत है.

   

शनिवार, 17 नवंबर 2018

Conspiracy - 05



ग्रेट मॉस्को स्ट्रीट के अंत में



उसे ठण्ड महसूस होती है, ख़ास तौर से बारिश के बाद, जब मोटी-मोटी बूंदें उसकी पीठ से बहती हैं. धूप के दिनों में वह लम्बी परछाई डालता है, और, जब वह चर्च की तरफ़ बढ़ती है, तब वह उसे देखता है. जैसे वह अभी सिर उठाएगा और कुछ कहेगा, मगर फ़िलहाल ख़यालों में डूबे हुए उसने विनिमय दर की और ज्वेलरी की दुकान के साइनबोर्ड्स से मुँह मोड़ लिया है – साइनबोर्ड बहुत बार बदलते हैं, मगर इस “फिलहाल” को लम्बा खिंचते जाना है. कई लोगों को याद है कि वह ग्रेनाइट का है, और सही है – उसे जैसे पत्थर से तराशा गया हो, हालाँकि ये काँसे का स्मारक है, सिर्फ पैडेस्टल ग्रेनाइट का है.

वह – इन्सान जैसा है. उस अर्थ में नहीं, कि इन्सान से काफ़ी मिलता है (सचमुच मिलता है – पिरोव के प्रसिद्ध पोर्ट्रेट से), बल्कि उस अर्थ में, कि अत्यंत सक्रियता से – जितना, आम तौर से, स्मारकों के लिए संभव है – व्यवहार में ख़ुद को प्रकट करता है : कभी घटनाएँ बनाता है, कभी ज़्यादतियों के लिए प्रेरित करता है, कभी घटनाओं को उकसाता है. एक शब्द में, जीता है. और लोगों के बीच में रहता है.

इनमें से पहली घटना पर अलेक्सान्द्र सकूरव ने डॉक्युमेन्ट्री फिल्म बनाई थी, जिसका शीर्षक भी यही था : “पीटर्सबुर्ग की डायरी. दस्तयेव्स्की के स्मारक का उद्घाटन”. किसी भी स्मारक का जीवन, ज़ाहिर है, उसके उद्घाटन से शुरू होता है, मगर 30 मई 1997 को जो कुछ हुआ, वह सकूरव की मेहेरबानी से न सिर्फ ऐतिहासिक तथ्य का, बल्कि एक ख़ास सामूहिक अनुभव का भी गवाह रहेगा. “ख़ामोश बैठो, फ्योदर मिखाइलविच”, अन्द्रेइ बीतव ने कहा, और ये वाक्य, जो शायद, संदर्भ से बाहर हास्यपूर्ण है, उस समय अजीब तरह से प्रासंगिक लग रहा था. बीतव प्रासंगिकता के बारे में कह रहा था - इस समय के फॉर्मूले – “चर्च और बाज़ार के बीच” - के अनुसार स्मारक की “प्रासंगिकता” के बारे में कह रहा था. कह रहे थे, कि जैसे वह हमेशा यहीं था. सर्वाधिक पीटरबुर्गी लेखक के प्रति ये शहर का कर्तव्य ही है. शस्ताकोविच ने चर्च के समूह गान में बाधा नहीं डाली, गवर्नर ने स्मारक के निर्माताओं के नामों का उल्लेख किया : ल्युबोव मिखाइलव्ना खोलिना, प्योत्र (उसका बेटा) और पावेल (उसका पोता), दोनों का कुलनाम इग्नात्येव था...और जब भाषण ख़त्म हुए और शहर के अधिकारीगण कारों में बैठ गए और अनिमंत्रित लोगों को स्मारक के पास छोड़ा गया, तो कैमेरा उस चीज़ पर केंद्रित हो गया, जो सकूरव के लिए हमेशा प्रमुख है – लोगों के चेहरों पर – उनके, जो सिर्फ कुछ देर के लिए आये थे, देखने के लिए, थोड़ा सा खड़े रहने के लिए. और ये – हाँ, दस्तावेज़ है.

“लोगों के चेहरों पर अक्सर नज़र डालना चाहिए”, पीछे से आवाज़ आई.
“शायद इसलिए, कि उनसे ज़्यादा प्यार करें”, सकूरव की आवाज़ कहती है. “और, शायद, इसलिए कि साहित्य हमसे दूर न हो जाए”. 

यहाँ कुछ अत्यंत व्यक्तिगत है – चेहरों के और साहित्य के बारे में.

तो, प्यार के बारे में...

सन् 2010 से, जुलाई के पहले शनिवार को (“जुलाई के आरंभ में, बेहद गर्म मौसम में, शाम को एक नौजवान अपनी कोठरी से निकला...”)... यदि किसी को मालूम नहीं हो तो बता दूँ, कि आम तौर से जुलाई के आरंभ में पीटर्सबुर्ग में दस्तयेव्स्की-दिवसमनाया जाता है. कई अर्थों में यह ख़ुशी का त्यौहार है. “दस्तयेव्स्की Forever”, “दस्तयेव्स्की राज कर रहा है!”, “रोद्या, तुम सही नहीं हो!” – पोस्टर्स, उपन्यासों के नायकों के जुलूस, प्रदर्शन, प्रचार, भीड़-नाट्य. और क्या? दस्तयेव्स्की का सनकीपन के प्रति झुकाव था, उसमें विनोद की भावना थी – हो सकता है, अपनी ही तरह के ख़ास विनोद की भावना हो, मगर थी. मज़ाक और शरारत पसन्द करता था. मगर बात ये भी नहीं है. ये बात नहीं है, कि दस्तयेव्स्की “हमारा सब कुछ” है, बल्कि अभी वह हमारे लिए मानो हमारे जैसा है (हमें, शायद, ऐसा लगता है, जब हम “रोद्या, तुम सही नहीं हो!” इस पोस्टर को समझते हैं). सोल्झेनीत्सिन के नायकों से हम इतनी बेतकल्लुफ़ी से पेश आयेंगे, इस बात की कल्पना करना भी मुश्किल है. मगर दस्तयेव्स्की के पात्रों के साथ ही जैसे हम बड़े हुए हैं.

और ग्रेट मॉस्को स्ट्रीट के अंत में खड़े दस्तयेव्स्की को इस बारे में सबसे ज़्यादा मालूम होगा. लोगों के बदलते मूड को उसने झेला है. उद्घाटन के आरंभ में दिखाए गए सम्मानों की गंभीरता ने पाठकों और प्रशंसकों के भावी आनन्दोत्सवों की संभावना को बदला नहीं था. और, ये देखिये, उसकी आँखों के सामने और लोगों को ख़ुशी प्रदान करते हुए , नियत समय पर ग्रेनाइट की चौकियों पर “अपराध और दण्ड” के पात्रों की जीवित मूर्तियाँ प्रकट हो जाएंगी (यदि वह ख़ुद – काँसे में लिपटा ग्रेनाइट है, तो वे काँसे में लिपटे जीवित शरीर”). कुज़्नेच्नी गली वाले अपने घर की बाल्कनी में “जीवित” दस्तयेव्स्की अकेला, या आन्ना ग्रिगोरेव्ना के साथ त्यौहार के मेहमानों का स्वागत करने के लिए आयेगा : नीचे स्टेज पर मुख्य कार्यक्रम चल रहा होता है. ये सच है, कि स्मारक की नज़र को वह दिखाई नहीं देता – शायद, यही बेहतर है.               

बाकी, आम दिनों में, बेशक, वह ज़्यादा शांत होता है. मगर आम दिनों में भी वह इन्सानों की दुनिया के निरंतर सम्पर्क में होता है. या इन्सानों की दुनिया उसके निरंतर सम्पर्क में रहती है  
(अगर आप ये मानते हैं, कि दुनिया उस तक "पहुँच जाती है"). उसके सामने अक्सर खुदाई होती है - यहाँ कुछ पाइप्स डाले गए हैं, और, जब उन्हें बदला जाता है, तो उसे ये सब देखना पड़ता है. उसके आसपास की जगह को अक्सर नया रूप देते रहते हैं. पीठ के पीछे वाले पेडों को या तो काटते हैं, या वहाँ नए पेड़ लगाते हैं. दो लैम्प-पोस्ट्स, पुराने स्टाइल में बने हुए, अवैध रूप से इश्तेहार चिपकाने वालों को आकर्षित करते हैं. सीधे लैम्प पोस्ट पर इश्तेहार चिपकाने वालों से बचाने के लिए, उनमें से एक पर लैम्प की ऊँचाई पर एक ढाल लगा दी गई, और वाकई में इश्तेहार, जो बड़े, मोटे अक्षरों में होते थे ( A4 साइज़ के और बगैर तस्वीरों के), कानूनी तरीके से इस ढाल पर प्रकट होने लगे ( "हर तरह की कानूनी सहायता", "ड्राइविंग लाइसेन्स की बहाली", "फ़ौरन कर्ज़"), और वे भी जो आसान थे, छोटे अक्षरों में थे और तस्वीरों के साथ थे ("मेट्रो के पास कमरा", "किसी भी समय मसाज"), उन्होंने भी किसी तरह अपने लिए सीधे-सीधे लैम्प-पोस्ट्स पर जगह बना ही ली, जिससे ऐसा लगने लगा कि लैम्प-पोस्ट्स छिल रहे हैं. आख़िरकार ढाल को हटा दिया गया और ये कम से कम इसलिए भी सही था, क्योंकि वह दस्तयेव्स्की के लैम्प को अवरुद्ध करती थी.          

निष्पक्षता की ख़ातिर ये कहूँगा, कि इश्तेहार चिपकाने वाले स्मारक के पैडेस्टल की, ज़ाहिर है, हिफ़ाज़त करते हैं, क्योंकि हम शहर में ऐसे अनेक ऐसे पैडेस्टल्स को जानते हैं, जिन पर बेरहमी से इश्तेहार चिपकाए गए हैं.

एक बार मैंने पैडेस्टल के पास कुछ और नहीं, बल्कि एक मोटर साइकल देखी – अगर स्मारक के क्षेत्र का पार्किंग की तरह इस्तेमाल करना है, तो मोटरसाइकल को फेन्सिंग की खूँटियों के उस पार से यहाँ लाना पड़ा होगा...एक तरफ़ से तो मोटरसाइकल यहाँ बेहद भद्दी लग रही थी, मगर दूसरी तरफ़ – इसमें दिल को छू लेने वाली कोई बात तो थी. जैसे कीमती चीज़ की हिफ़ाज़त की ज़िम्मेदारी स्मारक को सौंप दी गई हो, और वह वाकई में उस पर नज़र रखे हुए है.

मगर, फिर भी, इतना खुल्लम-खुल्ला स्मारक का उपयोग कम ही किया जाता है. आम तौर से उसका मीटिंग-प्लेस की तरह उल्लेख किया जाता है. यहाँ हमेशा कोई न कोई, घड़ी पर नज़र डालते हुए, किसी न किसीका इंतज़ार करता है. मैंने ख़ुद भी “दस्तयेव्स्की” के पास मुलाकात तय की है, और मुझे हर तरह के नज़ारों का गवाह और कभी कभी सहभागी भी होना पड़ा है.

न जाने क्यों नशे में धुत, और ख़ास तौर से पूरी तरह धुत लोग दस्तयेव्स्की के स्मारक के पास चुम्बक की तरह खिंचे चले आते हैं, ख़ासकर गर्मियों के मौसम में – कभी एक पैडेस्टल के पास पड़ा ऊँघता है, तो कभी दूसरा. वैसे इस क्षेत्र में और भी दूसरे अलग-थलग स्थान हैं, जहाँ सोया जा सकता है, मगर नहीं, न जाने क्यों यहीं, पैडेस्टल के पास समय-समय पर किसी न किसी का गुड़ी-मुड़ी बना शरीर दिखाई देता है. और क्या इस हाव-भाव से दस्तयेव्स्की के प्रति सहज सम्मान का भाव प्रकट नहीं होता है – जैसे, उपन्यास “पियक्कड़” की संकल्पना के लिए, मार्मेलादव के पात्र के लिए, इस विषय में दिलचस्पी के लिए? और कहीं इस तरह पियक्कड ख़ुद को स्मारक की सुरक्षा में तो नहीं सौंप रहा है? मैंने एक भी बार मिलिशिया-पुलिस को यहाँ किसी की शांति को भंग करते नहीं देखा. जैसे काँसे के फ़्योदर मिखाइलविच ने उन्हें सर्वोच्च स्वीकृति दी हो, जो खुले दिल से उसके पास आते हैं.

मगर अक्सर पियक्कड़, बेघर, और कभी-कभी चर्च के पोर्च से उठकर, जहाँ दस्तयेव्स्की पार्षद था, व्यावसायिक भिखारी भी यहाँ एक लम्बी बेंच पर बैठ जाते हैं, पार्क के पास – ध्यान लगाते हैं, कुछ लोग सो जाते हैं. ये जगह उन्हें पसंद है.

अब मैं एक किस्सा सुनाऊँगा, जो मेरी नज़र में सिर्फ यहीं – “दस्तयेव्स्की के पास” ही हो सकता है. ये बिल्कुल अविश्वसनीय, एकदम अति काल्पनिक मामला है. मेरी नज़रों के सामने जो घटित हुए उनमें सबसे असंभव दृश्य, ऐसा जिसके बारे में सोचा भी नहीं जा सकता.

घटना सन् दो हज़ार कुछ के गर्मियों के दिन की :  नियत समय और नियत स्थान पर – यहाँ, “दस्तयेव्स्की के पास” दो व्यक्ति मिलते हैं. दो व्यक्ति – पावेल क्रुसानव और मैं : वैसे हम तीसरे का इंतज़ार कर रहे थे, याद नहीं किसका, और ये महत्वपूर्ण भी नहीं है, वह वैसे भी हमेशा देर से ही आता है. लेखक क्रुसानव मुझसे पहले आ गया, और मैंने उसे दूर से ही, स्क्वेयर पार करने से पहले ही देख लिया. और स्मारक की ओर जाते हुए, तिरछी नज़र से वहाँ बैठे “क्लब” के सदस्यों को देख लिया, जो पत्थर की बेंच पर बैठे थे, - जो इस जगह के लिए बिल्कुल साधारण बात है. असाधारण व्यक्ति उनमें से सिर्फ एक था ( उसीके कारण यह समूह लोगों का ध्यान खींच रहा था) – अपने अजीब अवतार से वह अन्य लोगों से एकदम अलग नज़र आ रहा था, उस पर नज़र डाले बिना वहाँ से गुज़रना असंभव था, तो मैंने भी सरसरी नज़र उस पर डाली.

पैडेस्टल के पास आता हूँ, क्रुसानव से हाथ मिलाता हूँ, वह बैग से बियर की दो बोतलें निकालता है, एक मुझे देता है, खोलते हैं, एक-एक घूँट पीते हैं. आजकल हम इस तरह से बियर नहीं पीते, इसलिए नहीं, कि अब सड़क पर पीना मना है, बल्कि इसलिए, कि हम दोनों का ही मन इस पेय से ऊब चुका था. मगर तब, आम तौर से, चलता था, ख़ासकर जब किसी का इंतज़ार कर रहे हो और एक जगह पर खड़े हो. तो, हम ग्रेनाइट की खूँटी के पास खड़े हैं, किसी विषय पर बात कर रहे हैं – हाँ, साहित्य के बारे में, शायद, - और तभी मैंने देखा, कि वह अजीब सा आदमी बेंच से हटकर हमारी तरफ़ आ रहा है. ज़ाहिर था, कि अब मदद के लिए विनती करेगा और मैं भीतर ही भीतर ख़ुद को इसके लिए तैयार कर रहा हूँ. कैसा तो था वह...कैसे कहूँ...अगर ऐसा आदमी परदे पर दिखाई दे, तो कोई भी उसकी वास्तविकता में विश्वास नहीं करेगा. मतलब, जब आप मुँह फेर लेना चाहते हो : “ओह, गॉड!” (मगर, तभी मुझे फिर से सकूरव की याद आई – लोगों के चेहरों के बारे में, जिन पर अक्सर नज़र डालनी चाहिए, जिससे उन्हें प्यार कर सको...). चेहरा जगह-जगह से सूजा हुआ, आँख़ ऐसे तैर रही थी, कि पलक नज़र नहीं आ रही थी, मगर अब मैं वर्णन करने से अपने आप को रोकता हूँ... कपड़ों को देखकर लग रहा था, कि कहीं ऐसी जगह लेटा था, जहाँ लेटते नहीं हैं. उत्तेजित था, मगर हाव-भाव सधे हुए थे, और हमारी ओर किसी निश्चय से आ रहा था – जैसे समझ रहा हो, कि हम पर कैसा प्रभाव पड़ेगा. पास आकर नम्रता से माफी मांगता है, और पीड़ित शराबी की भर्राई आवाज़ में बियर के लिए माँगता है – सीधे बात पर आता है.

मैं पलक भी झपका नहीं पाया था, कि क्रुसानव ने फ़ौरन उसे अपनी बोतल दे दी, करीब-करीब पूरी भरी हुई. आदमी इस भेंट से कुछ चौंक गया और धन्यवाद देते हुए कुछ बड़बड़ाने लगा. क्रुसानव जेब में हाथ डालता है, और जो भी हाथ लगा, बिना देखे, उसे दे देता है. उस आदमी ने वे पैसे छुपाए नहीं, मगर क्रुसानव अपनी दूसरी जेब से भी पैसे निकालकर उसकी ओर बढ़ाता है. मैं भी पावेल वसील्येविच के प्रतिसाद से कुछ चौंक गया, मैं ख़ुद भी – सहानुभूति से उतना नहीं, जितना अनुरूपता से – भयानक शब्द : दे देता हूँ... और वो एकदम भौंचक्का हो जाता है. “लोगों, तुम लोग हो कौन?... कलाकार?” मुझे अक्सर कलाकार समझ बैठते हैं, अक्सर “उस तरह का” जवाब देता हूँ. मगर वह, ज़ाहिर है, मिलनसारिता दिखाते हुए हमें धन्यवाद देना चाहता है और वह अपने बारे में बताना आरंभ करता है – बर्फबारी की तरह; वर्ना ये क्या है? “आप यकीन नहीं करेंगे, मगर मैं भी लेखक हूँ”. (“भी” – ये इशारा दस्तयेव्स्की की तरफ़ था.) “आपको यकीन नहीं होगा, मैंने इतनी सारी किताबें लिखी हैं!...सारा देश मुझे पढ़ता था!...आप यकीन नहीं करेंगे, लाखों में मेरी प्रतियाँ निकलती थीं!...” क्रुसानव, मुझे आश्चर्यचकित करते हुए कुछ बुदबुदाता है जैसे “ओह, नहीं, क्यों नहीं...हम यकीन करते हैं...हम जानते हैं...” – मगर वह पावेल वसील्येविच को सुन ही नहीं रहा है और अपनी प्रतियों और मानधन के बारे में हाँके जा रहा है, हाँके जा रहा है, मगर कुछ समझ में नहीं आ रहा है : “अच्छा, चलता हूँ!” – और वह कोने के पीछे चला गया – वहाँ, बारह सीढ़ियाँ नीचे की ओर जाती हैं, वाइन की दुकान तहख़ाने में है.

“इसका क्या मतलब है?”- मैंने पूछा. “उसने मुझे नहीं पहचाना”, ‌- पावेल वसील्येविच रिक्तता से बोला. “कौन है ये?” मैं थोड़ा चौंकता हूँ. ‌– “आप एक दूसरे को जानते हैं?” क्रुसानव उसका कुलनाम बताता है, जिससे मैं कुछ अंदाज़ नहीं लगा पाता, ‌कोई साधारण सा कुलनाम, जिसे मैं, वैसे भी, जल्दी ही भूल जाऊँगा (याद करना मुश्किल नहीं है, मगर किसलिए?) “तो, ये क्या सचमुच में लेखक है?” और मैं सुनता हूँ: “हाँ”.

बात असल में ये थी. नब्बे के दशक के आरंभ में क्रुसानव एक बहुत बड़े प्रकाशन गृह में संपादक था. किताबों का बाज़ार पूरे उत्कर्ष पर था. प्रकाशन गृह कुछ ख़ास विधाओं पर निर्भर था; उनकी माँग बहुत ज़्यादा थी – फैन्टेसी, डिटेक्टिव...तभी एक पाण्डुलिपी आई, जो सही में “गैंग्स्टर नॉवेल” की विधा के अनुरूप थी, - उसे जेल से भेजा गया था, और विषय की जानकारी और भाषा की सजीवता के कारण वह उस तरह की अन्य रचनाओं से काफ़ी भिन्न थी.

“मुझे कुछ भी सुधारने की ज़रूरत नहीं पड़ी”. ढेर सारी प्रतियाँ निकाली गईं, और किताब फ़ौरन बिक गई. जल्दी ही नया लेखक जेल से बाहर आया. इसके बाद क्रुसानव नए प्रकाशन गृह में चला गया, और इस प्रकाशन गृह ने पूरी तरह नये लेखक पर ध्यान दिया, उसे “गैंग्स्टर नॉवेल्स” पर लगा दिया, जो वह एक के बाद एक लिखता जाता, उसे सहायक भी दिए गए. मानधन भारी था. वह समय भी, ज़ाहिर है, “गैंग्स्टरों” का ही था. बेशक, ये वो साहित्य नहीं था, जिसकी ओर आलोचक ध्यान देते हैं, मगर कामयाबी तो कामयाबी है. उसकी एक किताब की प्रतियों की संख्या मेरी और क्रुसानव की सभी किताबों की प्रतियों की संख्या से कहीं ज़्यादा थी, जो एक दूसरे काल-खण्ड में लिखी गई थीं.

और फिर? क्रुसानव नहीं जानता कि फिर क्या हुआ.

बाद में – पता नहीं.

लेखक और सम्पादक की दस्तयेव्स्की के स्मारक के पास मुलाकात – ये हुआ बाद में.

मैं चौंक गया. मैंने कहा, कि ऐसा नाटक सिर्फ यहीं हो सकता है – सिर्फ इसी जगह पर.

हम स्मारक के बाईं ओर खड़े थे, और फ्योदर मिखाइलविच, सिर झुकाए, सीधे हमारी ओर देख रहा था. अवास्तविकता का आभास इतना तीव्र था, कि मैं इसे सपना समझने के लिए तैयार था, वो भी उसका –  हमारी ओर देख रहे दस्तयेव्स्की का, उसके सपने में हम आये थे.

बियर, वैसे, बहुत कचरा थी. शायद, मैंने पूरी नहीं पी.                                                           


                         

गुरुवार, 15 नवंबर 2018

Conspiracy - 04




                     
                                    और, कोहिरर* कहाँ है?



जवानी के दिनों में अपनी पहली विशेषज्ञता – “रेडियो इंजीनियरिंग”, के अनुरूप मैं रेडियो इंजीनियरिंग प्रयोगशाला के सोल्डरिंग आयर्न के पास बैठा था. अगले कुछ साल मुझे फेडेरल रेडियो में काम करने का मौका मिला, मगर अब “आयर्न” के साथ नहीं, बल्कि शब्दों के साथ : रेडियो-नाटकों के कार्यक्रम के लिए लिए नाटक लिखता था. इन्स्टीट्यूट की प्रयोगशाला में, और रेडियो के संपादकीय विभाग में एक जैसे उत्साह से, अपने ख़ास व्यावसायिक उत्सव की तरह रेडियो-दिवस मनाया जाता था. सब जानते थे, कि 7 मई को इतने-इतने साल पहले हमारे देशबंधु पपोव ने सार्वजनिक रूप से किसी ऐसी चीज़ का प्रदर्शन किया था, जिसका उसने ख़ुद आविष्कार किया था – हाँ, वो ही रेडियो, जैसा वो है, जिसके लिए हमारी ओर से उसे बहुत-बहुत धन्यवाद. पहला जाम पपोव के नाम.

रूस में बहुत सारे पपोव हैं, मगर जैसे ही “पपोव” कहते हो – पहला ख़याल रेडियो के ही बारे में आता है.
उसका स्मारक अर्धशताब्दी से ज़्यादा कार्पोव्का और कामेन्नाओस्त्रोव्स्की एवेन्यू के बीच वाले पार्क में है. ये जगह बिना सोचे-समझे नहीं चुनी गई है : कार्पोव्का के उस ओर, अप्तेकार्स्की द्वीप पर, अलेक्सान्द्र III इलेक्ट्रो-टेक्निकल इन्स्टीट्यूट में अलेक्सान्द्र स्तिपानविच पपोव पढ़ाता था और प्रयोग करता था, वह रहता भी वहीं था – टीचिंग फैकल्टी के लिए बनाई गई बिल्डिंग में. मगर पपोव, जो पैडेस्टल पर खड़ा है, अभी इटेइ का प्रोफेसर नहीं है, और वह क्रोन्श्ताद्त में रहता है, क्योंकि वहाँ खान-अफ़सरों की क्लास में पढ़ाता है, हालाँकि ये उसकी जीवनी का हिस्सा है, मगर यहाँ, पैडेस्टल पर उसकी भौतिक छबि के अवतरण के बारे में सब कुछ एकदम सही है :  अभी वह इम्पीरियल सेंट पीटर्सबुर्ग विश्वविद्यालय में भाषण दे रहा है, और इस भाषण का शीर्षक है “धातुई चूर्णों और विद्युत कम्पनों के बीच संबंध के बारे में”. पार्क में आने वाला हर व्यक्ति, स्मारक की ओर जाते हुए स्वयम् की रूसी भौतिक-रसायनिक सोसाइटी की ऐतिहासिक मीटिंग के सदस्य के रूप में कल्पना करने के लिए स्वतंत्र है. किसी नई, अज्ञात चीज़ की प्रत्याशा से ख़ुश क्यों न हुआ जाए? देखिए, महाशय : वक्ता के बाएँ हाथ के पीछे कोई रहस्यमय चीज़ बनी हुई है (वैसे – पपोव के बाएँ हाथ की एक्स-रे तस्वीर – रूस के पहले रेडियोग्राफों में से एक है – उसी के नाम के केन्द्रीय संचार म्यूज़ियम में उसे देखा जा सकता है).

पपोव की 46 साल की उम्र में मृत्यु हो गई. मगर पैडेस्टल पर उसे पचास से ज़्यादा का दिखाया गया है. शिल्पकार वी. या. बगाल्यूबव को दोष देने की जल्दी न कीजिए – सभी फोटोग्राफ़्स में वैज्ञानिक अपनी उम्र से बड़ा ही दिखाई देता है. असल में इस समय उसकी उम्र छत्तीस साल है. सन् 1895. पुराने कैलेण्डर के हिसाब से 25 अप्रैल, और नये के हिसाब से – 7 मई. पचास वर्षों के बाद सोवियत ऑफ पीपल्स कमिसार्स रेडियो दिवस निश्चित करेगी – पहली बार उसे युद्ध समाप्त होने से दो दिन पूर्व मनाया जाएगा.

और ख़ुद स्मारक का उद्घाटन ए.एस. पपोव की जन्म शताब्दी के अवसर पर किया गया.

22 मार्च 1959 के उजले इतवार को इण्डस्ट्रियल-कोऑपरेशन के कल्चरल पैलेस के सामने एक हज़ार से ज़्यादा लोग एकत्रित हुए. सोवियत संघ का राष्ट्रगान सम्पन्न हुआ. आवरण हटाया गया, और लोगों के सामने स्मारक प्रकट हुआ. सबने दुनिया को अपना आविष्कार दिखाने को तैयार पपोव को देखा. “ईवनिंग लेनिनग्राद”, जो सोमवार को निकलता था ने बड़े साधारण तरीके से लिखा : “वह खड़ा है, बेडस्टैण्ड का सहारा लिए, जिस पर उसके आविष्कार - रेडियो-उपकरण की छवि है”. “स्मेना” प्रकाशित हुआ मंगलवार को और उसने भी “बेडस्टैण्ड” का ज़िक्र किया. बाद में फर्नीचर की इस चीज़ में व्यासपीठ देखा गया. “लेनिनग्राद्स्काया प्राव्दा” ने विस्तार में न जाते हुए, सिर्फ इतना लिख दिया : “पहला रेडियो सेट काँसे में अमर हो गया”. 

पता नहीं, कि इससे पहले रेडियो सेट्स को काँसे में अमर किया जाता था या नहीं. हो सकता है, कि रेडियो सेट का यह पहला स्मारक हो. ज़ाहिर है, सिर्फ उसका नहीं – सबसे पहले आविष्कारक का, और रेडियो सेट का भी. और न सिर्फ रेडियो सेट का, बल्कि पहले रेडियो सेट का.

पहला स्मारक रेडियो सेट का, ऊपर से – पहले रेडिओ सेट का.

मॉडेल के रूप में पहले रेडियो सेट को ए.एस. पपोव के म्यूज़ियम-क्वार्टर में रखा गया है, ये स्मारक से दो कदम दूर है. मगर यदि आपको पच्ताम्त्स्की-लेन तक जाने में कोई परेशानी न हो, तो मैं संचार-म्यूज़ियम की सिफ़ारिश करूँगा : वहाँ सीधे मौलिक रेडियो सेट को देख सकते हैं और मूल्यांकन भी कर सकते हैं, कि उसे काँसे में कितना सही-सही ढाला गया है.

आम तौर से, रूस में पपोव के कई स्मारक हैं, रेडियो सेट्स के साथ भी हैं. जैसे एकातेरिनबुर्ग में, जहाँ नौजवान पपोव ने एक थियोलॉजिकल स्कूल में दो साल बिताए थे, अलेक्सान्द्र स्तिपानविच पपोव, परिपक्व आयु का, रेडियो सेट की बगल में बैठा है, वैसे ही कच्चे लोहे के जैसा पपोव है, और हम, बड़े आत्मविश्वास के साथ, उस उपकरण में “टेलिफोन रिसीवर-प्रेषण का 1901 का नमूना देखते हैं (मूल वहीं, केन्द्रीय संचार म्यूज़ियम में है).

हाल ही में मैं पेर्म गया था, जहाँ बस यूँ ही पपोव के स्मारक के पास रुक गया : ये सबसे नया स्मारक न सिर्फ सौन्दर्यानुभूति देता है, बल्कि मुफ़्त में Wi-Fi. भी उपलब्ध करवाता है. अक्सर पपोव को परिपक्व आयु का दिखाया जाता है, मगर यहाँ पैडेस्टल पर वह एकदम छोकरा है. ये भी सही है, थियोलॉजिकल स्कूल के फ़ौरन बाद भावी वैज्ञानिक ने पेर्म छोड़ दिया, सेंट पीटर्सबर्ग के भौतिकी एवम् गणित संकाय में प्रवेश लेने के लिए. उसकी उम्र अठारह साल थी, और ये, शिल्प में ढला हुआ सबसे कम उम्र का पपोव है. स्मारक के साथ 25 अप्रैल 1895 के प्रदर्शन से संबंधित दो अतिरिक्त चीज़ें भी जुड़ी हुई हैं, वैसे, पेर्म वाले पपोव को वहाँ तक पहुँचने के लिए अभी काफ़ी जीना था. अलग-अलग पैडेस्टल्स पर रखी गईं ये चीज़ें प्रदर्शित करती हैं : (i) प्रेषण यंत्र के अलग-अलग हिस्सों का संयोजन और (ii) ख़ुद पहला रेडिओ सेट, वही वाला. इसलिए पहले रेडिओ सेट का ये कम से कम दूसरा स्मारक है.

पहले रेडिओ सेट के पेर्म वाले स्मारक को ध्यान से देखने के बाद, मैंने सुनिश्चित किया कि सभी ज़रूरी पार्ट्स दिखाए गए हैं (स्मारक के पास तारों और तार वाले एन्टेना के न होने को माफ़ किया जा सकता है). सबसे ज़्यादा तसल्ली मुझे उस पार्ट की मौजूदगी से हुई, जिसके बारे में हम ख़ास तौर से बात करेंगे. ये कोहिररकहलाता है, जो इस रेडियो सेट का करीब-करीब मुख्य पार्ट है. बात ये है, कि लेनिनग्राद्स्की-पीटर्बर्ग्स्की स्मारक में – और ये रहस्यपूर्ण है! – उसे, जैसे, जानबूझकर छुपाया गया है.

तो, हम अपने, पीटर्सबर्ग वाले स्मारक की तरफ़ लौटे.

अब मन को एकाग्र करके स्मारक का चक्कर लगाना है.

पपोव के पीछे, उसके पैरों के पास रखे ठीक-ठाक आकार के एक यंत्र पर फ़ौरन नज़र पड़ती है. ये रुम्कोर्फ की इंडक्शन कॉइल है, हेर्ट्ज़ के वाइब्रेटर के साथ. संभवतः कॉइल को डिस्चार्जर के साथ अभी एक निश्चित दूरी पर ले जाएँगे – उसकी और ख़ुदा की मदद से वातावरण में विद्युत-चुम्बकीय कम्पन भेजे जाएँगे (“हेर्ट्ज़ किरणें”, ऐसा उस समय कहते). वर्ना वह वहाँ, पपोव की पीठ के पीछे क्या कर रही है? भारी-भरकम शान से प्रदर्शित की गई रोम्कोर्फ-इंडक्शन कॉइल ये एहसास जगाने के काबिल है कि यहाँ वह सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण है. मगर हम ऐसा नहीं सोचेंगे. आविष्कार का नयापन उससे ज़रा भी संबंधित नहीं है. ख़ास तौर से उसकी ओर मुड़ते हैं, जो रिसीवर है.

पैडेस्टल ऊँचा है, और व्यासपीठ भी ऊँचा है, ऊपर से वक्ता का हाथ रेडियो को ढाँक रहा है, मगर कोई बात नहीं, देख सकते हैं – किनारे से, पपोव की कोहनी के पीछे से देखेंगे. कोई बेलनाकार चीज़ – ये अति संवेदनशील टेलिग्राफ़-रिलेहै. “लकड़ी की” (जैसे लकड़ी की हो) दीवार अच्छी तरह दिखाई देती है. अंदर की ओर से उसकी बगल में कोई समतल चीज़ है, ठीक से समझ में नहीं आ रही है, शायद कोई दूसरा “बोर्ड”, - नहीं, “बोर्ड” नहीं, ये बैटरीज़ हैं. बड़ी दिलचस्प बात है, यंत्र व्यासपीठ पर इस तरह क्यों मोड़ा गया है, कि जनता की ओर उसका पिछला, कम दिलचस्प हिस्सा हो? और, सबसे महत्वपूर्ण भाग है – उस ओर, सामने की ओर, दीवार के उस ओर. सबसे महत्वपूर्ण भाग देखेगा वो, जो वक्ता की पीठ की तरफ़ जाएगा. तो हम, पपोव की पीठ के पीछे खड़े होकर सामने वाली छोटी-सी दीवार की ओर देख रहे हैं, और हम क्या देखते हैं? घण्टी.

सही है, कि वहाँ घंटी है. उसकी यही जगह है. मगर कोहिररकहाँ है?

कोहिरर’ (अभी समझाता हूँ), या दूसरे शब्दों में ब्रेन्ली की ट्यूब, अपने आविष्कर्ता एडवार्ड ब्रेन्ली के नाम पर, - ये सचमुच में ट्यूब है, ख़ुद तो काँच की है, मगर उसके अन्दर धातु की छीलन होती है. जिसके भीतर हेर्ट्ज़ की किरणों के प्रभाव से “विद्युत प्रवाह के प्रति प्रतिरोध” में तेज़ी से गिरावट आती है, क्योंकि ट्यूब के भीतर धातु के कण या तो आपस में “गुंथ जाते हैं” (लॉज के अनुसार), या “जुड़ जाते हैं” (पपोव के अनुसार), मगर वैज्ञानिक धातुई पावडर के गुणों के बारे में चाहे कुछ भी कहें, उन्हें एक बात ने उत्साहित किया : ये यंत्र विद्युत-चुम्बकीय कम्पनों पर प्रतिक्रिया करने में सक्षम है. सिर्फ हर प्रक्रिया के बाद ट्यूब को हिलाना पड़ता है. इंग्लैण्ड में रेडियो के आविष्कारक के रूप में सम्मानित ऑलिवर जोसेफ़ लॉज ने कोहिरर को (उसीने इस शब्द का आविष्कार किया था) रिकॉर्डिंग यंत्र – डायल गैल्वेनोमीटर या साधारण घण्टी के साथ सर्किट में जोड़ दिया. हेर्ट्ज़ वाइब्रेटर द्वारा भेजे गए धक्के के कारण कोहिरर उच्च चालकता की स्थिति में आ जाता है, जिसके बारे में रेकॉर्डर – जैसे घंटी सूचित करती है. खनखनाहट को रोकने के लिए पाउडर वाली ट्यूब को धक्का देना पड़ता था. लॉज के प्रयोगों में उसके ऊपर एक घड़ी के कलपुर्ज़ों से जुड़ा हुआ छोटा सा हथौड़ा चोट करता था.

और हमारे पपोव ने क्या किया? उसने लॉज के प्रयोगों को जारी रखा. उसने कोहिरर के साथ ख़ुद घण्टी को जोड़ दिया, मतलब विपरीत सम्पर्क स्थापित किया : जब विद्युतचुम्बकीय आवेग से कोहिरर फिर से उच्च चालकता की स्थिति में आ जाता, संवेदनशील रिले (एक महत्वपूर्ण अतिरिक्त घटक!) घण्टी से बैटरी को जोड़ देता, उसका आर्मेचर कप पर ज़ोर से मार करता, वो, कम्पित होकर फिर से तीव्र प्रतिरोध की स्थिति ग्रहण कर लेता, और घण्टी का रिले के माध्यम से फिर से सम्पर्क टूट जाता. लम्बे सिग्नल – घण्टी देर तक बजती, छोटी – संक्षिप्त.

पपोव के बाद मार्कोनी ने, कोहिरर के अपने नमूने को पेश करते हुए इसी सर्किट को अपनाया.

हमें मार्कोनी की क्या ज़रूरत है? हम दूसरी बात कर रहे हैं.

तो, जब तक पपोव, मतलब, व्यासपीठ पर अपना भाषण पढ़ रहा है, हम उसकी पीठ के पीछे खड़े रहते हैं, रेडियो सेट की ओर देखते हैं और दीवार पर घण्टी देखते हैं, मगर कोहिरर हमें दिखाई नहीं देता. मगर भाषण का अधिकांश भाग तो ख़ासकर धातु की पाउडर वाली ट्यूब को समर्पित है, और इसे किसी और नाम से तो नहीं जाना जाता, याद दिलाता हूँ : “धातुई चूर्णों और विद्युत कम्पनों के बीच संबंध के बारे में”. कोहिरर की समस्या पपोव को बहुत परेशान कर रही थी. उसने बाद में भी इन कोहिरर्स में सुधार किए...संचार-म्यूज़ियम में पपोव द्वारा इस्तेमाल किए गए पाउडर्स का एक पूरा संग्रह है.

मगर कोहिरर कहाँ है?

पपोव को इस बात का श्रेय जाता है कि अपने यंत्र में उसने वायर-एन्टेनाका उपयोग किया (टेस्ला इसका आविष्कार कर चुका है), - बहुत ख़ूब!

फिर पपोव ने वायरकिससे जोड़ा? बेशक, कोहिरर से! मगर वो ही नहीं है.

कहेंगे, कि ये रेडिओ सेट का स्वाभाविक मॉडेल नहीं है, बल्कि सामान्य नमूना है. एक गूंगी ट्यूब को नज़रअंदाज़ क्यों न करें, जबकि सबको समझ में आने वाली घंटी वहाँ मौजूद है? मगर, ठहरिये: बैटरीज़, दीवार के पिछले हिस्से से चिपकी हुई हैं, करीब-करीब दिखाई नहीं दे रही हैं, मगर उनके बारे में तो कोई नहीं भूला. फ़ालतू-सा एलेक्ट्रोमैग्नेट भी ठीक घंटी के ऊपर दिखाया गया है. कोहिरर को पकड़ने वाले होल्डर्स की जोड़ी भी है, मगर ख़ुद कोहिरर उनके बीच नहीं है.

मगर सबसे नये वाले पेर्म के स्मारक में कोहिरर बीच में मोटा भी है – ये, रबर की मुहर, शायद, बहुत मामूली पार्ट है, जो कोहिरर को आकस्मिक आघात से बचाने के लिए है. ऐसा भी है!
मगर हमारे यहाँ, पीटर्सबर्ग में, कोहिरर नहीं है.

न जाने क्यों मुझे ये बात परेशान करती है. कि कोहिरर नहीं है.

पपोव ने, बेशक, कोहिरर में महँगी प्लेटिनम की प्लेट्स इस्तेमाल की थीं, मगर ये बहाना, कि “कहीं चोरी न हो जाएँ” मुझे मज़ाक लगता है. हो सकता है, कि कारण किसी गुप्तता से संबंधित हो? वैसे भी, अलेक्सान्द्र स्तिपानविच सैन्य-विभाग के लिए काम करता था और उसे हर चीज़ के बारे में खुल कर बोलने की आज़ादी नहीं थी? चाहे जो हो, इतिहासकार इसी बात के आधार पर उसके भाषणों में अजीब, अधकही बातों को समझाते हैं. जैसे वह जानबूझकर ये दिखा रहा हो, कि अपने आविष्कार को कोई ख़ास महत्व नहीं दे रहा है. जैसे जानबूझ कर ये दिखा रहा हो, कि उसने सिर्फ विद्यार्थियों के लिए आविष्कार किया है. मगर ख़ुद...

हो सकता है, कि इसका कारण “शीत युद्ध” हो. जो सन् 1959 में शुरू हो गया था, जब स्मारक का उद्घाटन किया गया था, और न केवल हर बात में गुप्तता रखने की अपरिहार्यता, बल्कि उसका पालन करने की आवश्यकता को भी प्रदर्शित किया जा रहा था?...हर बात अधूरी सी, और (या) ढंकी-छुपी होनी चाहिए. भौगोलिक नक्शों को जानबूझ कर बिगाड़ा गया. युद्ध-पूर्व की शहर की योजनाओं को पुस्तकालयों से हटा लिया गया. या, जैसे सत्तर के दशक में हम विद्यार्थियों को अपनी उन चीज़ों का ज़िक्र करने की मनाही थी, जिसके बारे में विदेशी सैन्य-पत्रिकाएँ खुल्लम-खुल्ला विस्तार पूर्वक जानकारी देती थीं. होल्डर्स हैं, मगर कोहिरर नहीं है. पता नहीं अचानक...

हाँ...भटक गया...मगर था, था तो सही पपोव के पास कोहिरर!

हो सकता है, वह पपोव की जेब में हो?

पपोव अभी जेब से कोहिरर निकालेगा, उसे स्प्रिंग से जोड़ेगा, रेडियो सेट को मोड़्कर उसका मुँह दर्शकों की ओर करेगा और - -

वर्ना तो, कैसे?

 
                                                                                   
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* कोहिरर – रेडिओ सिग्नल डिटेक्टर