शुक्रवार, 28 दिसंबर 2018

Conspiracy - 13


दुर्भाग्य से जूझता  


वारसा स्टेशन के पास वाला लेनिन – ऐसा ही हम इस स्मारक को जानते थे.
अब वारसा स्टेशन बिल्कुल रेल्वे स्टेशन नहीं है, और काँसे का भीमकाय ल्यिच अब उसके स्वयम् के लिए भी अप्रत्याशित जगह पर लोगों की नज़रों से छुपा हुआ है...
अजीब भाग्य है इस स्मारक का – पीटर्सबुर्ग के मापदण्डों के अनुसार भी अजीब. और एकदम सही : भाग्य. वो जो जनम से उसके लिए लिखा है. दुर्भाग्य.   
पहली बात : शिल्पकार तोम्स्की ने शुरू में यह स्मारक इसलिए नहीं बनाया था, कि वह रेल्वे स्टेशन के दर्शनीय भाग में एक कोने में फिट हो जाए. यह लेनिन इस जगह के लिए नहीं सोचा गया था और इस शहर के लिए भी नहीं. सर्वनाम “यह” का उपयोग लेनिन के संदर्भ में स्मारक के रूप में मैंने व्यापक अर्थ में उपयोग किया है, क्योंकि संकीर्ण अर्थ में “यह”, विशिष्ट लेनिन होगा – यह लेनिनग्राद का लेनिन – शिल्पकार की पुनरावृत्ति है “दूसरे” - आरंभ में वरोनेझ में, युद्ध से पहले, शहर के केन्द्र में, लेनिन स्क्वेयर में स्थापित किए गए मूल लेनिन की प्रतिकृति है. वरोनेझ वाली मूल कलाकृति को तीन साल से भी कम समय दिया गया था स्मारक जर्मन कब्ज़े को बर्दाश्त नहीं कर सका, उसे कैद करके पिघला दिया गया. काश, सिर्फ इतना होता! ये है – दूसरी बात : जहाँ तक दुर्भाग्य का संबंध है. वरोनेझ वाले जानते हैं: इल्यिच के फैले हुए हाथ को कब्ज़ा कर चुके जर्मनों ने कम से कम एक बार हत्या का औज़ार बनाया था. ईमानदारी से कहूँ तो, मैंने पहले इस बात पर विश्वास नहीं किया, कि लेनिन के स्मारक पर  एक आदमी को फाँसी दी गई थी, सोचा कि ये ख़ौफ़नाक किस्सों में से कोई एक स्थानीय किस्सा है, मगर कुछ नहीं कर सकते – पता चला, कि इससे संबंधित फोटो मौजूद है,
युद्ध के बाद इस खोए हुए स्मारक को पुनर्स्थापित करने का फ़ैसला किया गया, और देखा, कि नेता की अस्सीवाँ जन्मदिन है. शिल्पकार तोम्स्की ने रचनाकार की प्रतिकृति पर काम किया, बल्कि दो प्रतिकृतियों पर दूसरी का उद्घाटन लेनिन के जन्मदिन पर वरोनेझ में किया गया, और पहली, बिल्कुल वैसी ही, छह महीने पहले – नवम्बर की छुट्टियों के उपलक्ष्य में लेनिनग्राद में स्थापित की गई. वैसे, उस समय तक वारसा रेल्वे स्टेशन के पुनर्निर्माण का काम पूरा हो गया था, और सामने वाली रंगीन काँच की खिड़की के स्थान पर, जो पहले दर्शनीय भाग को सुशोभित कर रही थी, एक बड़ा सा आला बना दिया गया. बेशक, लेनिनग्राद निवासियों को, जो स्मारक के उद्घाटन के अवसर पर मौजूद थे, पहले वाले, वरोनेझ के अवतार से जुड़ी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के बारे में कोई ज्ञान नहीं था – इस स्मारक को उन्होंने ख़ास अपना ही समझा, जैसे उसने पहली बार जन्म लिया हो, जिस पर किसी भी बात का बोझ न हो – किसी भी तरह की पुरानी, खूब पुरानी अवसादपूर्ण यादों का.
मगर परेशानियाँ, काफ़ी थीं.
और अब हम उँगलियों पर गिनते हैं : तीसरी बात.
बात ये है, कि वारसा रेल्वे स्टेशन के पास वाले काँसे के लेनिन की स्वतंत्रता सिर्फ विशिष्ठ अवतार की धुँधली यादों से उतनी सीमित नहीं थी, जितनी काँसे के स्टालिन का जोड़ीदार बनाने के घातक कर्तव्य से, जिसे इसी शिल्पकार, तोम्स्की ने ही बनाया था और जिसे निकट ही स्थापित किया गया था – अबवोद्नी कॅनाल वाले पार्क में. बात इस बारे में नहीं हो रही है, कि ये आकृतियाँ असंगत हैं (सब कुछ अनुरूप है), मगर इस बारे में है, कि एक स्मारक दूसरे पर निर्भर कर रहा है, इस घटना में – लेनिन स्टालिन पर. दोनों स्मारकों का – लेनिन के, और स्टालिन के भी – उद्घाटन एक ही दिन, 5 नवम्बर को, किया गया, मगर असल में ये स्टालिन के जन्मदिन का अवसर था. दिसम्बर ’49 में स्टालिन की 70वीं सालगिरह मनाई गई, तो नवम्बर की छुट्टियों के पहले लेनिनग्राद में स्टालिन के एकदम चार (!) स्मारकों का उद्घाटन किया गया – तीन पूर्णाकृति और एक अर्धप्रतिमा, और वो भी उस शहर के स्क्वेयर्स और रास्तों पर, जहाँ अब तक आम तौर से जनरल सेक्रेटरी के स्मारक के बगैर ही काम चल रहा था! जैसे, वैचारिक खामियों को सुधारने का वक्त आ गया था.
मगर, फिर होता क्या है? होता ये है, कि वरोनेझ के लेनिन की पुनर्स्थापना लेनिन के अस्सीवें जन्मदिन पर की जाती है, और बिल्कुल वैसे ही लेनिनग्राद के लेनिन का उद्घाटन स्टालिन के सत्तरवें जन्मदिन पर किया जाता है – जैसे कम्पनी देने के लिए, जैसे एक किट का हिस्सा होजैसे परिशिष्ट हो.
असल में स्टालिन का सत्तरवाँ जन्मदिन चार-चार स्टालिनों के एक साथ आगमन का मुख्य कारण नहीं था. स्टालिन ने स्पष्टतः लेनिनग्राद को अपने आधीन कर लिया, क्योंकि स्टालिन (व्यक्ति) के विचार में यहाँ कुछ गलत हो रहा था. लेनिनग्राद के अग्रणी नेताओं के पार्टी विरोधी और सरकार विरोधी प्रश्न का अध्ययन इस समय तक पूरा नहीं हुआ था, मगर लेनिनग्राद मामलेके पहले कार्यकर्ताओं को गिरफ़्तार कर लिया गया था. और इस मामले से संबंधित आरंभिक मृत्युदण्ड के लिए साल भर से भी कम समय बाकी था.                
और यही है, शायद, चौथी बात. इल्यिच के स्मारक का उद्घाटन सबसे अच्छे समय में नहीं हुआ.
और, ये रही पाँचवीं बात. जिसका जगह से संबंध है. अच्छी जगह नहीं है. वो जगह है, जहाँ खून की नदियाँ बही थीं. वो भी सिद्धांतों की ख़ातिर – दूसरे शब्दों में बिल्कुल औपचारिक ढंग से.
यहाँ, वारसा  स्टेशन के सामने, एक ज़माने में आंतरिक मामलों का मंत्री, वी. पी. प्लेवे मारा गया था – सोशलिस्ट क्रांतिकारी सज़ोनव ने उस पर बॉम्ब फेंका था. हत्या की जगह पर लिए गए फोटो में साफ़ दिखाई देता है, कि कैसे विस्फोट से रंगीन काँच की खिड़की उड़ गई थी – इसी जगह पर बाद में काँसे का लेनिन प्रकट हुआ था.
लेनिन का प्लेवे के प्रति बेहद निषेधात्मक रवैया था, प्लेवे के बारे में उसकी राय मशहूर है – “पुलिस की चालाक लोमड़ी”. लगता है, कि प्रोसेक्यूटर वीशिन्स्की ने इसी छबि को रचनात्मक रूप से प्रस्तुत किया, जब काफ़ी बाद में उसने ज़ोरदार शब्दों में बुखारिन को “लोमड़ी और सुअर का शापित मिश्रण” कहकर प्रमाणित किया था. मगर लेनिन का प्लेवे के व्यक्तित्व के साथ चाहे जैसा भी संबंध रहा हो, उसने उसकी हत्या का स्वागत नहीं किया , क्योंकि वह सैद्धांतिक रूप से व्यक्तिगत आतंक के ख़िलाफ़ था, जो उसकी राय में, सर्वहारा वर्ग को क्रांतिकारी संघर्ष से विचलित करता है. ये प्रसिद्ध है : “कोई भी हमें मुक्ति नहीं देगा : न ख़ुदा, ना त्सार और न ही हीरो’. ‘हीरो – ख़ास इसीके बारे में है. अचरज की बात तो कुछ और है: “द इन्टनेशनल” के इस सूत्र की पूर्णता के अनुसार “ख़ुदा का भी, और त्सार का भी” –– वारसा  रेल्वे स्टेशन पर लेनिन की पुनर्स्थापना से सीधा संबंध है.  
क्योंकि, छठी बात, वारसा  रेल्वे स्टेशन पर लेनिन किसी और के स्थान पर खड़ा है. लेनिन का स्मारक उस जगह पर है, जहाँ पहले कोई और स्मारक था – एक छोटे चर्च का, जो बोर्की में ट्रेन दुर्घटना में शाही परिवार के आश्चर्यजनक रूप से बचने की याद में बनाया गया था. काँच के इस छोटे-से गिरजाघर में रंगीन काँच की खिड़की में रक्षक फरिश्ते की आकृति है. बेशक, बोर्की की घटनाओं (1888) से लेनिन का कोई संबंध नहीं था. इतना ही कहना काफ़ी है, कि शाही परिवार की हत्या की ज़िम्मेदारी उस पर है, जिसका स्मारक उसके रक्षक के सम्मान में बने गिरजाघर के स्थान पर बनाया गया है.
ये भी कह सकते हैं : अलेक्सान्द्र III और उसके परिवार के सुरक्षित बचने वाली घटना की याद में बनाए गया स्मारक के स्थान पर उस व्यक्ति का स्मारक आ गया, जिसके भाई ने त्सार की हत्या करने की कोशिश की थी, जिसके लिए उसे फाँसी पर लटका दिया गया.
एक अन्य युग में हम इसी तरह के प्रतिस्थापन के साक्षी थे, मगर विपरीत दिशा में : जब मार्बल पैलेस के पार्क में लेनिन की बख़्तरबंद कार “पूँजीवाद की मृत्यु” के स्थान पर, जो बोल्शेविकों की प्रमुख पवित्र वस्तुओं में से एक थी, प्रकट हुई उसी अलेक्सान्द्र III की घोड़े पर सवार शिल्पकृति, पाओलो त्रूबेत्स्की की प्रसिद्ध रचना प्रकट हुई.       
तो, वारसा  रेल्वे स्टेशन के दर्शनीय भाग के कोने में लेनिन के स्मारक के प्रकट होने के पीछे इतनी भयावह कार्मिक उलझनें थीं, कि यहाँ उसके आधी शताब्दी से अधिक सही-सलामत अस्तित्व के बारे में सोचकर आश्चर्य होता है. और हाँ, नब्बे के दशक में उस पर कई बार रंग उंडेला गया, मगर फिर भी वह नई सहस्त्राब्दि तक पहुँच ही गया. और वैसे भी अपने ज़माने के सभी स्टालिनों से भी अधिक समय तक खड़ा रहा, अबवोद्नी कॅनाल वाले अपने जोड़ीदार समेत.
वह कोना आज तक उसके लिए भरोसेमंद आश्रयस्थल बना हुआ है. जब हम अबवोद्नी कॅनाल के किनारे-किनारे दर्शनीय दीवार के पास से गुज़र रहे थे, तो गहराई में स्थित ख़ुद लेनिन को हम पूरा नहीं देख सके, मगर उसके हाथ को देखा, जो धृष्ठता से बाहर की ओर निकला था, मुझे ख़ासकर ये कोण अच्छा लगा. पब्लिक लाइब्रेरी की मुख्य बिल्डिंग के दर्शनीय भाग के साथ-साथ टहलते हुए भी ऐसा ही नज़ारा देखने को मिलता है : स्तम्भों के कारण किनारे से मूर्तियाँ नहीं दिखाई देतीं, मगर एक हाथ – ये डेमोस्थेनीज़ का हाथ है, बाहर दूर तक फैला हुआ है. लेनिन, बेशक, डेमोस्थेनीज़ का सम्मान करता था.
काँसे के इल्यिच पर दुर्भाग्य की मार पड़ी सन् 2005 में, और तब उसका मानो तांडव ही शुरू हो गया. वारसा स्टेशन के पुनर्निर्माण के कारण स्मारक लुप्त हो गया. खुद स्टेशन भी मनोरंजन केंद्र “वारसा  एक्स्प्रेस” में परिवर्तित हो गया. इज़्माइलोव्स्की प्रॉस्पेक्ट के विस्तार की ख़ातिर रेल्वे स्टेशन को नष्ट करने के प्रश्न पर सोवियत काल से ही विचार हो रहा था, और कहते हैं, कि सिर्फ लेनिन के स्मारक के कारण रेल्वे स्टेशन को छुआ नहीं गया. पता नहीं, ये सच है या नहीं. चाहे जो भी हुआ हो, बिल्डिंग अभी तक अपनी जगह पर ही है, मगर इल्यिच को ध्वस्त कर दिया गया.
उसके उस तरफ़ के रहने वालों ने, जिन्हें स्मारकों में दिलचस्पी थी, बेशक, उसके लुप्त होने पर गौर किया, मगर उनकी तकलीफ़ को बढ़ा-चढ़ा कर नहीं बताऊँगा. ये मान लिया गया, कि काँसे का लेनिन बगैर कोई सुराग़ छोड़े गायब हो गया है. पता चला कि ऐसा नहीं है. सन् 2010में पत्रकारों को लेनिन के ठिकाने का पता चला, जिसके बारे में उन्होंने दुनिया को सूचित कर दिया. हुआ ऐसा, कि इन सालों में इल्यिच पूरे समय स्तारो-पानोवा मरम्मत-कारखानों के क्षेत्र में खड़ा रहा, जो लीगवा रेल्वे स्टेशन से ज़्यादा दूर नहीं है. अच्छा-ख़ासा ऊँचा, वह कारखाने की छत पर गर्व से चढ़ गया, मगर ये जगह काफ़ी सुनसान है, और उसे सिर्फ वे ही लोग देख सकते थे जो घुमौने दरवाज़े वाले प्रवेश द्वार को पार करके उस तरफ़ जा सकते थे, जहाँ, आँगन के काफ़ी भीतर धकेला गया लेनिन था, और अपना वक्ता वाला अंदाज़ प्रदर्शित कर रहा था. दिन में दीवार के और बिल्डिंग्स के पीछे से औद्यौगिक क्षेत्र की ख़ास आवाज़ें सुनाई देतीं : कहीं कुछ घिसा जाता, कुछ घसीटा जाता. रातों को आवारा कुत्ते भौंकते. गात्चिना-बाल्तीस्काया की तरफ़ जाती हुई और वहाँ से वापस लौटती हुई रेलों का शोर, शायद इल्यिच को अपने रेल्वे स्टेशन के भूतपूर्व निवास स्थान की, और इस बात की भी याद दिलाता हो कि उसे ऑक्टोबर-रेल्वे स्टेशन के संतुलन से हटाया नहीं गया था. रेल्वे वालों को ज़ाहिर है, पता नहीं था, कि अपनी संपत्ति को कैसे ठिकाने लगाएँ, और अगर सब लोग उसके बारे में भूल जाते तो उन्हें ख़ुशी ही होती, शायद इसीलिए लेनिन को मरम्मत की प्रक्रियाओं से परेशान नहीं किया गया. दूसरे शब्दों में, वह अनिश्चितकालीन कारंटाइन में था. लेनिन के कई स्मारकों ने अकेलेपन को बर्दाश्त करना सीख लिया था, वैसा इस स्मारक के बारे में नहीं कहा जा सकता. इस लेनिन के लिए तनहाई सज़ा के समान थी – आख़िर वह भाषण देने वाला लेनिन था.
एक ही चीज़, जो लेनिन को ख़ुशी दे सकती थी, वह था उस सड़क का नाम, जिस पर ये कारखाना स्थित है. सड़क का नाम था श्रमजीवी मार्ग”.
दुनिया में अच्छे लोग भी होते हैं. वैसे लोग भी निकल आये, जिन्होंने इल्यिच को बचाने का फ़ैसला कर लिया. अब तो ये समझना मुश्किल है, कि स्मारक को नष्ट करने की धमकी कितनी गंभीर थी – जैसे “गलाना” ये शब्द किसी ने कहा था, मगर किसने? क्यों? किन हालात में? चाहे जो हुआ हो, मगर उसे सबसे बुरे परिणाम से बचा लिया गया – तो, हर हाल में, रक्षा करने वालों ने इस बात पर विश्वास कर लिया. भाग्य ने स्मारक को बचाने के लिए उनके नेता – पी. एस. लेस्गाफ़्त नेशनल स्टेट युनिवर्सिटी ऑफ फिज़िकल कल्चर, स्पोर्टस एण्ड हेल्थ के रेक्टर को – एक अधिकारी के रूप में भेजा. उसी ने काँसे के इल्यिच के लिए अपने प्रशासन के तहत उच्च सिक्षा संस्थान की सीमा में विश्वसनीय आश्रय स्थल का इंतज़ाम किया.        
नई जगह पर ले जाने के लिए ख़ास मशक्कत करनी पड़ी. लेनिन को चार धुरी वाले कार्गो-ट्रेलर के प्लेटफॉर्म पर पीठ के बल लिटाया गया – ऐसे ट्रेलर्स का इस्तेमाल हर तरह के बड़े सामान को ले जाने के लिए किया जाता है, - कस कर जंज़ीरों से बांध दिया गया. लेटे हुए लेनिन का हाथ आसमान की ओर उठ गया. किन्हीं षड़यंत्रकारी कल्पनाओं की आशंका से उसके सिर और धड़ के कुछ हिस्से पर कोई भूरा-हरा कपड़ा लपेट दिया गया, जिसने आने-जाने वालों को पहली ही नज़र में उसे पहचानने में कोई बाधा नहीं डाली. हो सकता है, सिर पर इसलिए कपड़ा बांधा गया था, जिससे उसे ख़ुद को पता नहीं चले, कि उसे कहाँ ले जा रहे हैं. नेशनल टी.वी. की टेलिविजन टीम ने इस ट्रेलर को रीम्स्की-कर्साकव मार्ग पर पकड़ा – सभी के लिए उपलब्ध “तस्वीर” के लिए इतिहास उनका ऋणी है. रिपोर्ताझ का अंत पूरा नहीं था : फोटोग्राफ़र्स की टीम को लेस्त्गाफ्त में घुसने नहीं दिया गया.
लेनिन आँगन में खड़ा है. उसके नीचे वाला पैडेस्टल इतना नीचा है, कि उसे अनदेखा किया जा सकता है – समझ सकते हैं, कि वह ज़मीन पर ही खड़ा है. पीठ के पीछे – दीवार है. दीवार के पीछे (दूसरी तरफ़ से भी प्रवेश है) – थ्योरी एण्ड प्रैक्टिस ऑफ हॉकी का विभाग. लेनिन की बगल में दो पेड़ हैं. एक पर लेनिन के सिर की ऊँचाई तक एक बर्डहाउस ठोंका गया है.
इस बात पर गौर करना होगा, कि जब इसे यहाँ लाया गया, तब युनिवर्सिटी में पहले से ही लेनिन का एक स्मारक मौजूद था. वह  काफ़ी साधारण था, हालाँकि पूरा सुनहरा था. मगर स्मारकों को अपने जैसों का पड़ोस पसंद नहीं आता, और अब – तथाकथित पहले आँगन में – पहले वाले लेनिन की याद सिर्फ क्युबिक पैडेस्टल दिलाता है, जिस पर अभी तक किसी ने कब्ज़ा नहीं किया है.
फिर लेस्गाफ्त युनिवर्सिटी में ख़ुद लेस्गाफ्त का स्मारक भी है. लेनिन और लेस्गाफ्त एक दूसरे से परिचित थे. अपने ज़माने में लेस्गाफ़्त ने शारीरिक प्रशिक्षण के लीडर्स और शिक्षिकाओं के लिए कोर्सेस का आयोजन किया था, पिछली शताब्दी के आरंभ में लेनिन ने वहाँ पढ़ाया था. लेनिन के स्मारक के अधिग्रहण का कारण आंशिक रूप से इस ऐतिहासिक घटना में निहित है. व्यक्तिगत रूप से मेरी राय कुछ और है : जिस तरह से लेस्गाफ्त ने अपने कोर्सेस में पढ़ाने के लिए लेनिन को आकर्षित किया था, उसी तरह लेस्गाफ्त के स्मारक ने लेस्गाफ्त युनिवर्सिटी में लेनिन के स्मारक को आकर्षित किया.*
लेस्गाफ्त की रचनाओं में एनाटॉमी पर लिखी पुस्तकें शामिल हैं. क्या लेनिन को एनाटॉमी में दिलचस्पी थी? क्रेमलिन की लेनिन लाइब्रेरी की पुस्तक सूची में लेस्गाफ्त की “ए कोर्स ऑन थियोरिटिकल एनाटॉमी” शामिल नहीं है. मगर इसका मतलब ये नहीं, कि एनाटॉमी की समस्याओं के प्रति लेनिन उदासीन था. एक भौतिकवादी होने के नाते उसे एनाटॉमी का समुचित ज्ञान था. इस बात की गहराई में नहीं जाएँगे, मगर ये भी सच है, कि सैद्धांतिक एनाटॉमी के क्षेत्र में हुई उपलब्धियों ने लेनिन के शरीर के मृत्योपरान्त भाग्य को प्रभावित किया. मतलब, मुझे इसमें कोई अजीब बात नहीं दिखाई देती, कि लेनिन का स्मारक एनाटॉमी विभाग की खिड़कियों की ओर देख रहा है. अगर चाहें, तो लेनिन और एनाटॉमी के बीच किसी ज़्यादा मज़बूत संबंध को खोजा जा सकता है.
स्मारक की सही ऊँचाई बताना बाकी है. साढ़े पाँच मीटर्स. ये काफ़ी है, ये सचमुच काफ़ी है. वारसा  स्टेशन वाला स्मारक – लेनिन के शहर में लेनिन के स्मारकों में सबसे ऊँचा है. जब सन् 1949 में उसका उद्घाटन किया गया था, तब वह लेनिनग्राद का सबसे ऊँचा लेनिन था. इस समय वह दूसरे नम्बर पर है. उससे ऊँचा सिर्फ मॉस्को प्रोस्पेक्ट पर अनिकूशिन्स्की वाला लेनिन है. 

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* लेनिन के पहले वाले स्मारक का उद्घाटन 23 अप्रैल 2007 को हुआ था. पैडेस्टल की किनारे वाले पार्श्व पर लगाए गए पटल पर ये इबारत है : “व्ला. इ. उल्यानव (लेनिन) द्वारा हस्ताक्षरित पीपल्स कमिसार्स की सोवियत के आदेश पर सन् 1919 की गर्मियों में पी.एफ. लेस्गाफ्त की फैकल्टीज़ के कोर्सेस के आधार पर प्रथम स्टेट इन्स्टीट्यूट ऑफ फिज़िकल एजुकेशन” की स्थापना की गई”.

सोमवार, 24 दिसंबर 2018

Conspiracy - 12



प्रस्तुतकर्ता


इस स्मारक के बारे में मुझे बस एक ही सवाल पूछना है. कुछ और नहीं पूछूँगा. न तो कलात्मक मौलिकता के बारे में, न उसकी उत्पत्ति के रहस्यों के बारे में, न ही उसके दर्जे के बारे में...हालाँकि दर्जे के बारे में दो शब्द कहना चाहिए, जिससे स्पष्ट हो जाए कि किसके बारे में बात हो रही है. ये स्मारक- बैरागी है. वह एकॅडेमी ऑफ आर्ट्स, या दूसरे शब्दों में कहें तो, रेपिन इन्स्टीट्यूट के वृत्ताकार आँगन का कैदी (या स्वामी) है. कई लोग सोचते हैं कि एक साधारण इन्सान इस स्मारक को नहीं देख सकता. रेपिन इन्सटीट्यूट में वाकई में पासदिखाकर जाना पड़ता है. मगर, यदि आप म्यूज़ियम में जा रहे हैं – वहाँ, दूसरी मंज़िल पर, प्रवेश फ्री है, और आपको खिड़की से काँसे के आदमी को देखने का मौका मिलेगा, जिसके बारे में सर्वविदित है, कि ये शुवालव है. मॉस्को वालों के लिए तो और भी आसान है – शुवालव के स्मारक को देखने के लिए उन्हें पीटर्सबुर्ग आने की ज़रूरत नहीं है, उनके पास अपना स्मारक है, बिल्कुल ऐसा ही – वराब्योव हिल्स (स्पैरोव हिल्स) पर, युनिवर्सिटी की फंडामेन्टल लाइब्रेरी के सामने.

सब सही है, इवान इवानविच शुवालव ने - जो काऊण्ट, कार्यरत गुप्त सलाहकार, एलिज़ाबेथ के कृपापात्र थे, मगर एकातेरीना के कार्यकाल में जिनका निरादर हुआ था, न सिर्फ सेंट पीटर्सबुर्ग में एकॅडेमी ऑफ आर्ट्स की स्थापना की, बल्कि उससे दो साल पूर्व मॉस्को में युनिवर्सिटी की भी स्थापना की थी, एकॅडेमी ऑफ आर्टस असल में जिसकी शाखा थी. स्मारकों के साथ इसके विपरीत हुआ – पहले वह पीटर्सबुर्ग में प्रकट हुआ, और साल भर बाद – मॉस्को में. दोनों के शिल्पकार ज़े. के. त्सिरितेली हैं, मगर पीटर्सबुर्ग का शुवालव – शिल्पकार द्वारा शहर को दिया गया उपहार है.

तो ऐसा है. पीटर्सबुर्ग का और मॉस्को का शुवालव एक जैसे हैं, दोनों दरबारी कोट में हैं, दोनों एक जैसी बेंचों पर बैठे हैं, दोनों एक ही दिशा में देख रहे हैं, दोनों ही के दाएँ हाथ में ड्राइंग पेपर का रोलहै, और दोनों ही का बायाँ हाथ फैला हुआ है. मगर पीटर्सबुर्ग वाले के फ़ैले हुए हाथ में कुछ भी नहीं है, और हमें ये अनुमान लगाना पड़ता है, कि इस मुद्रा से पीटर्सबुर्ग वाला शुवालव अपने पैरों के पास पड़ी हुई चीज़ को हमें दिखा रहा है, और वहाँ, उसके सामने है एकॅडेमी ऑफ आर्ट्स की बिल्डिंग का नक्शा. मगर मॉस्को वाले शुवालव ने अपने उसी तरह फैले हुए हाथ में मॉस्को युनिवर्सिटी की स्थापना का आदेश पकड़ रखा है. एकॅडेमी ऑफ आर्ट्स की बिल्डिंग का प्लान, जिसे पीटर्सबुर्ग में कार्यान्वित किया जाने वाला है, ज़ाहिर है, मॉस्को वाले शुवालव के पास नहीं है (याद दिला दूँ, कि ये मॉस्को में हो रहा है). ठीक उसी तरह, पीटर्सबुर्ग का शुवालव भी मॉस्को युनिवर्सिटी की वास्तविकता की ओर इशारा नहीं कर रहा है (क्योंकि, इस बार ये पीटर्सबुर्ग में हो रहा है). मतलब, हर शुवालव जनता को कोई ऐसी चीज़ दिखा रहा है, जो सिर्फ उसी शहर के लिए महत्वपूर्ण है.

ठीक है.

मगर क्या ये अजीब नहीं है?

नहीं, मैं पुनरावृत्ति के बारे में नहीं कह रहा हूँ. पुनरावृत्ति – स्मारकों की ज़िंदगी में आम बात हैं. अच्छा, ये देखिए. पीटर्स्बुर्ग में “क्रास्नादोन के वीरों” का स्मारक है, ये “सौगन्ध” नामक स्मारक की पुनरावृत्ति है, जिसे पहले क्रास्नादोन में स्थापित किया गया था. पीटर्सबुर्ग के (बेशक, लेनिनग्राद के) चपायेव का स्मारक समारा (कुयबीशेव) के चपायेव की पुनरावृत्ति करता है. इत्यादि, इत्यादि. ख़ुद ज़ुराब कन्स्तान्तीनविच त्सिरितेली ने नीझ्नी नोवगरद को, मर्तोस की कलाकृति के सम्मान स्वरूप, मीनिन और पझार्स्की के स्मारक की एक प्रति भेंट की थी, हाँ, ये कहते हैं, कि वह आकार में छोटी है – पूरे पाँच सेन्टीमीटर्स.

लेनिन को ही लीजिए – इस प्यारी आत्मा की तो कितनी ही पुनरावृत्तियाँ हुई हैं. वी. वी. कज़्लोव की कलाकृति को याद कीजिए, स्मोल्नी के सामने वाले इल्यिच के शिल्प को, जिसे ग्रेनाइट के बेलनाकार पैडेस्टल पर स्थापित किया गया है (जिसे, इत्तेफ़ाक से, एकॅडेमी ऑफ आर्टस के काँस्य-ढलाई कारखाने में ढाला गया था). उसके क्लोन्स देश में बिखरे पड़े हैं – अनगिनत! इस लेनिन के नीचे कैसे-कैसे पैडेस्टल्स की कल्पना की गई! कन्स्ट्रक्टिविस्ट स्टाइल में, सुपरमैटिक स्टाइल में, और निओक्लासिकल स्टाइल में, और त्याप-ल्याप’ (फ़टाफ़ट-अनु.) स्टाइल में. मगर लेनिन हमेशा एक ही रहा, हमेशा एक ही काम में व्यस्त. अपने दाएँ हाथ के जोशीले हाव-भाव से वह विभिन्न वस्तुओं की ओर इशारा करता था (और इससे चुटकुलों की गुंजाइश पैदा करता), मगर हाव-भाव हमेशा वही, जोशीला होता. इस लेनिन के फैले हुए हाथ में ना तो कभी GOELRO ( रूस के विद्युतीकरण के लिए सरकारी कमिशन) का प्लान दिखाई दिया, ना स्टालिन का संविधान, ना ही पहली मई का झण्डा. ये लेनिन हर जगह एक जैसा ही रहा – वैसा ही जैसा स्मोल्नी के मार्ग में था.

मगर जहाँ तक शुवालव के स्मारक का सवाल है, यहाँ हमें एक बिल्कुल नई बात दिखाई देती है. यहाँ विविधताएँ न तो स्मारक के आकार से और न ही पैडेस्टल के रूप से संबंधित हैं, बल्कि उनका संबंध स्मारकों के व्यवहार की विशेषताओं से है. एक ही स्मारक की इन विविधताओं की तुलना करने पर, हमें सचमुच में स्मारकों का व्यवहारजैसी असाधारण बात के बारे में कहने का हक प्राप्त हो जाता है.

गौर कीजिए, कि यहाँ और वहाँ, दोनों स्थानों पर व्यवहार एक जैसा है, मगर व्यवहार में निहित अर्थ अलग-अलग हैं.

शुवालोव पीटर्सबुर्ग में क्यों ऐसा बर्ताव कर रहा है, और मॉस्को में किसी और तरह का? क्योंकि उससे ऐसा ही करने को कहा गया है. मॉस्को में भी, और पीटर्सबुर्ग में जैसे वह काम पर ही है, काम से जुड़े कुछ कर्तव्य पूरे कर रहा है. उसका सार है कुछ विशेष सुविधाओं के प्रदर्शन में. वह कुछ कह रहा है, कुछ सूचित कर रहा है, दर्शकों को किन्हीं विशिष्ट, मगर हर मौके के लिए ख़ास चीज़ों की जानकारी दे रहा है. उसके भाषण की कामयाबी इस बात पर निर्भर है, कि वह स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप है अथवा नहीं.     

ये बात ग़ौरतलब है, कि प्रदर्शित की जा रही चीज़ों का – एक स्मारक में, जैसे कोई ड्राइंग हो, दूसरे में ऑर्डर की शानदार नकल – ऐतिहासिक शुवालव से अप्रत्यक्ष संबंध है. जब एकॅडेमी की बिल्डिंग का निर्माण हो रहा था, मान लीजिए, ऐसे ड्राइंग्स के अनुसार, तो शुवालव, जो एकातेरीना के राज्य काल में अवकृपा का पात्र बन चुका था, विदेश में रह रहा था. और एलिज़ावेथा पित्रोव्ना ने मॉस्को युनिवर्सिटी की स्थापना के आदेश पर इसलिए तो हस्ताक्षर नहीं किए थे, कि शुवालव, बेंच पर बैठे-बैठे सबको ये दस्तावेज़ दिखाता रहे. मगर, यदि ये फर्जी (फर्जी हस्ताक्षर!) है, तो क्या शुवालव ऐसे दस्तावेज़ का प्रदर्शन करता?

इस बात की कल्पना करना असंभव है, कि ऐतिहासिक शुवालव इतना क्रियाशील होने की जोखिम उठा सकता था. बेशक, वह शिक्षाविद् था, मगर उदाहरण स्वरूप नहीं. कार्यकारी गुप्त सलाहकार इवान इवानविच शुवालव कभी भी कर्मचारी की भूमिका नहीं निभा सकता था, वह भी उस जगह की विशेषता को देखते हुए, जो एक सड़क-छाप सहायक के लिए ज़्यादा उचित है.

मगर, हो सकता है कि ये बिल्कुल शैक्षणिक कार्य न हो, और छद्मवेष में ज़िंदगी हो, मिमिक्री हो? प्रस्तुत किए जा रहे दस्तावेजों को ये सिद्ध करना होता है, कि उन्हें प्रस्तुत करने वाला – हर शहर में अपना दस्तावेज़ – कोई और नहीं, बल्कि शुवालव है.

मुझे इस बात का डर है. असल में – ये सवाल बहुरूपिये के बारे में है.

नहीं, सावधानी पूर्वक कहता हूँ.

क्या सचमुच, वहाँ भी और वहाँ भी – शुवालव है? कहीं कोई बहुरूपिया तो नहीं, जो किसी कारणवश शुवालव होने का नाटक कर रहा हो, जैसे कई लोग लेनिन होने का या पीटर महान का होने ढोंग करते हैं?

वह क्या चाहता है? उसे किस बात की ज़रूरत है? असली शुवालव के साथ उसने क्या किया है?
              


  
                                          

शुक्रवार, 21 दिसंबर 2018

Conspiracy - 11


सत्तावनवाँ




पीटर्सबुर्ग के आरंभिक स्मारकों में – आरंभिक से मेरा तात्पर्य उन स्मारकों से है, जिन्हें उँगलियों पर गिना जा सकता है, - कुछ असामान्य भी हैं. शायद, ऐसा नहीं है – पीटर्सबुर्ग के सभी आरंभिक स्मारक अपनी-अपनी तरह से असामान्य हैं (और सबसे ज़्यादा असामान्य, उस लिहाज़ से, काँसे का घुड़सवार” है). मगर फिर भी – असामान्यों की श्रेणी में आने वाले पीटर्सबुर्ग के आरंभिक स्मारकों में एक पूरी तरह अप्रत्याशित है.  

हालाँकि, ऐसा प्रतीत हो सकता है, कि ना तो स्मारक के समर्पण में (स्मारक एक जन्मदिन के सम्मान में है), और ना ही समारोह के हीरोके महत्व में (और वह वाकई में स्मारक के योग्य है) कोई ख़ास बात है. हाँ, और ख़ुद स्मारक, जो अभी तक सही-सलामत है, पूरी तरह स्मारकों की पारंपरिक श्रेणी का है – ये एक स्तंभ है.

ये स्तम्भ है – कला-अकादमी की पचासवीं वर्षगांठ की याद में.

और इस स्तम्भ की विशेषता ये है, कि उसने स्मारक के स्थान पर किसी तरह का दावा भी नहीं किया.

वैसे, उसे इसके लिए बनाया भी नहीं गया था. कज़ान्स्की चर्च के लिए यह बना था.
चर्च की आंतरिक रचना के लिए कुल 56 स्तम्भों की ज़रूरत थी. ये बचा हुआ, सत्तावनवाँ था. अगर हम अभी कोई नीति-कथा लिखते, तो इस सत्तावनवें के अजीब भाग्य से कोई सार अवश्य निकालते – जो उन छप्पन की ही तरह वज़न बर्दाश्त करने के बनाया गया था, उसे पता ही नहीं चला कि असली वज़न क्या होता है.     

6 नवम्बर 1807 को  स्तम्भ को स्मारक घोषित कर दिया गया – स्मारक का उद्घाटन इम्पीरियल एकॅडमी ऑफ आर्ट्स के वृत्ताकार आँगन में हुआ.

कहीं वास्तुकार ए. एन. वरानीखिन ने आधुनिक संकल्पनावादियों को पीछे तो नहीं छोड़ दिया? ऐसा तब होता है, जब एक स्वतंत्र वस्तु....स्तम्भ के लिए अच्छा शब्द है : “स्वतंत्र”. ...जब, मैं कह रहा था, कि एक तैयार वस्तु, जिसे आरंभ में किसी और काम के लिए बनाया गया था – जैसे, समझ लीजिए, कोई इस्त्री - उसे कलात्मक वस्तु घोषित कर दिया जाए. मिसाल के तौर पर, स्मारक की तरह परिभाषित कर दिया जाए.

सब अच्छी तरह समझ में आ जाएगा, अगर ये याद करें, कि एकॅडमी ऑफ आर्ट्स का प्रेसिडेन्ट और कज़ान्स्की चर्च के निर्माण के लिए बनाए गए बोर्ड ऑफ ट्रस्टीज़ का चेयरमैन एक ही व्यक्ति था – काउन्ट ए. एस. स्त्रोगानव. जब कज़ान्स्की चर्च को स्त्रोगानव का शिशुकहते हैं, तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है. स्त्रोगानव के बिना वरानीखिन न होता, और न ही चर्च होता, वाकई में नहीं होता. कम से कम, वैसा चर्च. और आंतरिक सज्जा के लिए ऐसे स्तम्भों के साथ.

इसलिए, जब हम स्तम्भों की बात करते हैं, तो वीबर्ग से ग्रेनाइट के मोनोलिथों को प्राप्त करने का सबसे कठिन काम और इन भव्य चट्टानों को पीटर्सबुर्ग पहुँचाने, साथ ही उन्हें तैयार करने के काम की, और साथ ही अन्य अनेक कामों की व्यवस्था काउन्ट स्त्रोगानव ने की, स्तम्भों के विशेषज्ञ सैम्सन सुखानव और उसकी पूरी टीम को हमारा सलाम!

और ये बात, कि वरानीखिन पूर्व में स्त्रोगानव का कृषि-दास था, बेशक, सबको मालूम है.

हालाँकि सब लोग, अगर सबकी बात करें, बेशक, कुछ और भी जानते हैं : कि स्त्रोगानव ने बीफ़स्त्रोगानव नामक पकवान का आविष्कार किया था. अरे नहीं, साहेबान, पकवान का संबंध दूसरे स्त्रोगानव से है – अलेक्सान्द्र सिर्गेयेविच स्त्रोगानव के, इस स्त्रोगानव के, भाई के पोते से. इस स्त्रोगानव का नाम कई प्रसिद्ध वास्तुशिल्प के प्रयोगों से जुड़ा है.       

प्यार के मामले में अलेक्सान्द्र सिर्गेयेविच ख़ुशनसीब नहीं रहा, मगर दूसरी चीज़ों में किस्मत उस पर मेहेरबान थी : स्त्रोगानव ने उस चर्च को, जिस पर उसने काफ़ी मेहनत की थी (और धन भी दिया था), वृद्धावस्था में, पूरी तरह बना हुआ देख लिया – कज़ान्स्की चर्च के प्रतिष्ठापन के कुछ ही दिनों बाद उसकी मृत्यु हो गई थी. मगर चित्रकार ए.जी.वर्नेक के ब्रश से बनाया गया अपना पोर्ट्रेट वह नहीं देख सका, ये पोर्ट्रेट – मरणोपरांत बनाया गया था. दरबार के वास्तविक गुप्त-सलाहकार काउन्ट ए. एस. स्त्रोगानव को कैनवास पर महल के अपने काल्पनिक दफ़्तर में दिखाया गया है, और हमारे लिए वाकई  में सबसे महत्वपूर्ण बात ये है, कि खिड़की के पीछे कज़ान्स्की चर्च अपनी सम्पूर्ण भव्यता के साथ खड़ा है, और काउन्ट के हाथ में एकेडमी ऑफ आर्ट्स की इमारत का नक्शा है, जिस पर वृत्ताकार आँगन की रूप रेखा साफ़ दिखाई दे रही है. स्वाभाविक है, कि नक्शे में बाहर से लाए गए स्तम्भ-स्मारक को नहीं दिखाया गया है, जो आरंभ में चर्च के लिए बना था, मगर, फिर भी ग्रेनाइट का स्तम्भ चित्र में दिखाया गया है – नींव और आधार समेत.

वास्तविक स्तम्भ के ऊपर, जो एकॅडमी को सौंप दिया गया है, वरानीखिन ने एक गोला स्थापित कर दिया था. आँगन, जो एक सम्पूर्ण वृत्त था, और गोला जिसे ग्रेनाइट के स्तम्भ द्वारा उसके ऊपर चढ़ाया गया है – ये सार्वभौमिक सद्भाव की विजय है, गोलों का संगीत है, पूर्णता की ओर जाता हुआ आरोही मार्ग है, और भी जाने क्या-क्या – स्त्रोगानव और वरानीखिन फ्रीमेसन (गुप्त संस्था के सदस्य - अनु.) थे, मगर फ्रीमेसन्स के प्रतीकों के रहस्य में जाने का फ़िलहाल हमारा कोई इरादा नहीं है. हमें दूसरी बात में दिलचस्पी है – भौतिक वस्तुओं के रूप में स्मारकों के जीवन में जो स्वयँ प्रत्यक्ष नहीं है, बाहरी दुनिया से,  लोगों से और अपने जैसी वस्तुओं से उनके रिश्ते, और अगर ये आपको किसी अदृश्य निर्देशक द्वारा स्वयम् के लिए प्रस्तुत किसी अवास्तविक नाटक की याद दिलाए, तो इसमें हमारा कोई दोष नहीं है.           

एकॅडेमी की बिल्डिंग के स्पष्ट प्लान वाली जिस ड्राइंग शीट को स्त्रोगानव ने चित्र में खोला है, उसका मुख्य तत्व – वृत्ताकार आँगन का “काँसे का प्रतिरूप” एकॅडेमी के लगभग वैसे ही प्लान के साथ, जो एकॅडेमी ऑफ़ आर्ट्स के वास्तविक वृत्ताकार आँगन के केंद्र में है, मौजूद है. हाँ-हाँ, ऐतिहासिक बिल्डिंग के ठीक बीचोंबीच, भीतरी वृत्ताकार आंगन के केंद्र में इसी बिल्डिंग का काँसे का “प्लान”इसी वृत्ताकार आंगन के साथ है. काँसे के “कागज़” के नीचे – काँसे का गोल प्लेटफॉर्म है, और उसके ऊपर – शाही कोट पहने हुए काँसे का आदमी है, जो काँसे की धनुषाकार बेंच पर बैठा है और, कहीं एक ओर देखते हुए, न जाने क्यों हमारी तरफ़ बायाँ हाथ बढ़ा रहा है – शायद, हमारा ध्यान एकॅडेमी के “ड्राइंग” की ओर खींच रहा है. बात, बेशक, ई.ई.शुवालव, एकॅडेमी के संस्थापक के स्मारक की हो रही है – स्मारक पीटर्सबुर्ग को उसकी 300वीं सालगिरह के उपलक्ष्य में रशियन एकॅडेमी के वर्तमान प्रेसिडेंट, ज़ुराब  त्सिरितेली द्वारा भेंट किया गया था.

वरानीखिन वाला स्तम्भ इस जगह पर सिर्फ दस साल रहा, त्सिरितेली वाला, शायद, काफ़ी लम्बे समय तक खड़ा रहने की उम्मीद है.

इस स्मारक के बारे में चाहे कोई कुछ भी सोचे, मगर वृत्तों का संयोजन प्रभावशाली है – वृत्त के भीतर वृत्त : काँसे के कागज़ पर “छोटा” वृत्त, जो पैमाने के अनुरूप भीतरी आँगन को प्रदर्शित करता है, और ख़ुद भीतरी वृत्ताकार आँगन, जिसके केंद्र पर ही ड्राइंग समेत ये स्मारक स्थापित है. सबसे ज़्यादा आश्चर्यजनक बात ये है, कि स्मारक के शिल्पकारों को वृत्तों के पूर्वनियोजित खेल में पकड़ना सबसे कठिन है : पहले स्मारक के लिए दूसरी जगह निश्चित की गई थी – मालाया सादवाया पर, ऐतिहासिक शुवालव के महल के सामने, जहाँ आरंभ में उसके द्वारा स्थापित एकॅडेमी थी. वहाँ, इसी तरह की धनुषाकार बेंच पर काँसे के शुवालव को बैठना था और आने जाने वालों को – ज़े.के. त्सिरितेली की इच्छानुसार – एकॅडेमी ऑफ आर्ट्स की भावी बिल्डिंग के प्लान को प्रदर्शित करना था. मगर पीटर्सबुर्ग की सामाजिक सोच ने प्रॉजेक्ट को पूरा नहीं होने दिया – शुवालव को आँखों से दूर करके एकॅडेमी के वृत्ताकार आँगन में बिठा दिया गया.

मगर ये हो क्या रहा है? - “ड्राइंग में” शुवालव के पैरों के पास वाला छोटा वृत्त, जो आँगन के केन्द्र में है, उसी जगह पर है, जिस पर स्मारक-स्तम्भ खड़ा था.

तो ऐसा है संयोग!

मई 1817 में एकॅडेमी ऑफ आर्ट्स के उपाध्यक्ष पी. पी. चेकालेव्स्की की मृत्यु हो गई, जो स्त्रोगानव की मृत्यु के बाद एकॅडेमी की व्यवस्था संभाल रहे थे. उसी समय सर्वोच्च आदेश द्वारा अध्यक्ष के पद पर ए. एन. अलेनिन की नियुक्ति की गई – उसे ये समझने में देर न लगी कि एकॅडेमी का काम-काज बुरी हालत में है. अध्यक्ष पद पर अपने कार्यकाल के बारहवें वर्ष में अलेनिन ने अपनी पुस्तक “सन् 1814 से 1829 के दौरान रॉयल एकॅडेमी ऑफ आर्ट्स के काम-काज का संक्षिप्त ऐतिहासिक विवरण” में एकॅडेमी को उचित स्तर पर लाने के लिए किए गए प्रयासों के बारे में याद दिलाना उचित समझा. जिन सकारात्मक सुधारों का श्रेय अलेनिन ने स्वयम् को दिया है, जैसे “स्वास्थ-सेवाओं में सुधार करना”, “मुख्य भवन के आंतरिक भाग से मल-प्रवाह पद्धति के दफ़्तरों को हटाना”, “मुख्य भवन से लान्ड्री और पेन्ट हाउस को हटाना” इत्यादि, उनमें एक और उपाय का ज़िक्र मिलता है : “वृत्ताकार-आँगन से ग्रेनाइट के स्तम्भ को हटाना”. इस समस्या को एक पूरा पैराग्राफ़ समर्पित है :
“वृत्ताकार और अपने आप में बेमिसाल आँगन में शहर के वास्तुकार स्वर्गीय वरानीखिन की सलाह पर कज़ान्स्की चर्च के निर्माण से बचा हुआ एक ग्रेनाइट का स्तम्भ लगाया गया था, जो अपनी सीधी ऊचाई से आँगन की वृत्ताकार रेखाओं को बड़ी भद्दी तरह से काटता था और इससे एक और नुक्सान ये हो रहा था, कि उसका आधार, जो बुरी तरह से निर्मित था, बसन्त के मौसम में बर्फ के पानी को भूमिगत पाइपों में स्वतंत्रता से नहीं जाने देता था, और इसकी वजह से एकॅडेमी के तहखाने, जिनसे काफ़ी आय होती है, कुछ हद तक पानी में डूब जाते हैं.  
<…> इस ग्रेनाइट के स्तम्भ को, जिसका वज़न करीब एक हज़ार पूद (पूद – वज़न का पुराना माप. 1 पूद – 40 पाऊण्ड्स – अनु.) था, सन् 1817 में लुहार शापव ने 1400 रूबल्स में बेहद हल्के मचान और दो चरखियों की सहायता से अपने आधार से हटा कर एक सुरक्षित जगह पर रखवा दिया. इस प्रयोग से, जो काफ़ी बड़े पैमाने पर किया गया था, अध्यक्ष अलेनिन को ( हाँ, अध्यक्ष अपने बारे में तृतीय पुरुष का प्रयोग करता है – लेखक) ये यकीन हो गया, कि सेन्ट आइजैक चर्च के स्तम्भों को लगभग इन्हीं साधनों की सहायता से उठाकर, अधिक अच्छी तरह और विश्वसनीयता के साथ, बिना किसी डर के स्थापित किया जा सकता है. वरानीखिन के ग्रेनाइट वाले स्तम्भ के स्थान पर आज मीनिन और पझार्स्की के ग्रुप का प्लास्टर ऑफ पैरिस का बड़ा मॉडेल है (मीनिन और पझार्स्की – सोलहवीं शताब्दी में मॉस्को को पोलिश सेनाओं से आज़ाद करवाने वाले वीर योद्धा – अनु.), जिसे शहर के रेक्टर मर्तोस से ख़रीदा गया था”.
जैसा हम देखते हैं, “स्तम्भ को हटाना, अलेनिन के अध्यक्ष पद का पहला बड़ा काम* था. स्तम्भ को वह एक अप्रिय गलती की तरह याद करता है, जिससे आँगन को मुक्त करना ज़रूरी था. इस बात का इशारा भी नहीं, कि ये एक स्मारक है, जिसे यहाँ यूँ ही नहीं, बल्कि किसी के सम्मान में स्थापित किया गया था. मगर, ये “किसी के” पिछले साल की बर्फ जैसा है : एकॅडेमी सत्तर साल की हो चुकी है, और पचास के दशक को याद करने में किसे दिलचस्पी है?

मगर अब उसके बारे में, जो स्तम्भ के स्थान पर आया है. इस वाक्य पर गौर करें - “मीनिन और पझार्स्की के ग्रुप का प्लास्टर ऑफ पैरिस का बड़ा मॉडेल” : शब्द “बड़ा” यहाँ न सिर्फ संरचना के साइज़ को दर्शाता है (समकालीन लोगों ने इन आँकडों को विशालमाना है), बेशक, एक छोटा मॉडेल भी था. जब मार्तिन द्वारा प्रस्तावित मीनिन और पझार्स्की का मॉडेल सन् 1908 में प्रतियोगिता में विजयी हुआ, तो शिल्पकार से एक प्लास्टर ऑफ पैरिस का मॉडेल बनाने की माँग की गई, जो “स्वाभाविक आकार का हो, और जो स्मारक का मूल स्वरूप होगा”. “स्मारक के ऐतिहासिक वर्णन” नामक पुस्तक के अनुसार, जो उसके उद्घाटन के फ़ौरन बाद ही प्रकाशित हो गई थी, इस सारे प्रयास का उद्देश्य, (अगर हमारी बात सुनी जाए) कुछ और नहीं, बल्कि पुनर्निर्माण था. बड़े मॉडेल को तैयार करने में काफ़ी समय लग सकता था, और अगर अचानक शिल्पकार की मृत्यु हो जाए तो? तब दूसरा कुशल मूर्तिकार “छोटे” मॉडेल के नमूने पर “विशाल” आयाम का मॉडेल – स्मारक का बड़ा (अंतिम) मॉडेल  बना सकता था. मर्तोस के इरादे की बड़ी प्रशन्सा की गई थी.

सन् 1817 में, मतलब जिस साल “वरानीखिन के स्तम्भ” को हटाया गया था, रूस का ध्यान पितृभूमि की रक्षा करने वाले वीरों पर केंद्रित था : इससे एक साल पहले काफ़ी लोगों की उपस्थिति में (एकॅडेमी के ढलाई कारखाने की गैलरी में काफ़ी दर्शक थे) “एक ही बार में” ढाले गए स्मारक को पानी के रास्ते मॉस्को पहुँचाना था. विशेष इंतज़ाम के साथ फिनलैण्ड के ग्रेनाइट से बनाया गया पैडेस्टल मॉस्को भेजा जाता है, इस ग्रेनाइट को खदान से निकालने और उसे तैयार करने का काम “कुशल संगतराश” सैम्सन सुखानव ने किया था, जो तेरह साल पहले से इस किस्से की “ग्रेनाइट-महारानी” पर काम कर रहा था.

“वरानीखिन-स्तम्भ” के साथ कुछ ऐसा हुआ कि उसकी किस्मत में पूर्णांक तारीखों का महत्व है – वह ख़ुद पचासवीं सालगिरह को समर्पित था, स्मारक के रूप में प्रकट रूप से खड़ा रहा – दस साल, और “सुरक्षित स्थान” पर - भूला-बिसरा - पड़ा रहा, तीस साल.

उसकी याद ब्र्युलोव को आई, जब वह एकॅडेमी ऑफ आर्ट्स का गार्डन बना रहा था. स्तम्भ को गार्डन के बीचों बीच ग्रेनाइट के पैडेस्टल पर स्थापित किया गया, वहीं वह आज भी खड़ा है. पुनर्स्थापित स्तम्भ से ये उम्मीद थी, कि वह समझ में आए और अपने उद्देश्य को स्पष्टता से प्रकट कर सके, इसलिए संदेहास्पद गोले के स्थान पर अपोलो की वीणा रख दी गई और तीनों कलाओं को प्रदर्शित करती हुई तीन औरतों की आकृतियों वाला काँसे का शीर्ष बना दिया गया. अगर उनकी तरफ़ देखते हुए आप स्तम्भ का चक्कर लगाएँ, तो मैं कह सकता हूँ, कि पहली बार में आप इन आकृतियों को गिनेंगे : सचमुच में, कभी चार गिनेंग़े, तो कभी तीन. वे तीन ही हैं, शक करने की गुंजाइश नहीं है. ये हैं – चित्रकला, मूर्तिकला और वास्तुकला.

जहाँ तक वास्तुकला का संबंध है, यहाँ के अनुपातों का तर्क ऐसा है, जो ख़ुद ही अंतर्निहित ख़ूबसूरत सामंजस्य का सुझाव देता है. एकॅडेमी के उत्तरी भाग के सामने स्थापित स्तम्भ, क्षेत्र के हिसाब से अप्रत्याशित रूप से एक न्यूनकोणीय समद्विबाहु त्रिभुज प्रदर्शित करता है, जिसका आधार, प्राचीन स्फिन्क्स द्वारा निर्धारित है, और बिल्डिंग के दूसरी तरफ़ वाले किनारे पर है. समद्विबाहु त्रिभुज के आधार के लिए ज़िम्मेदार स्फिन्क्स की आयु साढ़े तीन हज़ार साल है (इसीलिए वे आधार हैं), और विपरीत दिशा में स्थित न्यून कोणीय-शीर्ष वाले ग्रेनाइट के स्तम्भ की, जो एक उत्पाद की तरह है, इस हिसाब से कुछ भी नहीं है, तब तो उसका समय शुरू भी नहीं हुआ था. औपचारिक रूप से उसकी आयु 50 है. वास्तव में दो सौ से ज़्यादा. क्या यहाँ वर्षों की तुलना हो रही है स्फिन्क्सों की आयु से? वैसे, काफ़ी हद तक वे रिश्तेदार हैं – ये स्फिन्क्स और ये स्तम्भ – दोनों का खून एक ही है : उन्हें एक ही तरह की चट्टानों से बनाया गया है, जिनकी विशेषता है खुरदुरापन और क्वार्ट्ज़ की उपस्थिति.

रेखागणित की विजय के दृष्टिकोण से देखें तो स्तम्भ और स्पिन्क्स ने एक दूसरे को ढूँढ़ लिया. बल्कि, एक गूढ़ अर्थ में वे एक दूसरे को खोज रहे थे. जब स्तम्भ को “सुरक्षित जगह” पर रख दिया गया, तो फ़राओन अमेन्होतेप III के चेहरे वाले प्राचीन स्फिन्क्स वृत्ताकार आँगन में प्रकट हुए, मानो उससे मिलने आए हों (वाकई में वे वहाँ तटबन्ध पर इंतज़ाम किए जाने का इंतज़ार कर रहे थे). और फिर से स्त्रोगान्स्की के पोर्ट्रेट को याद करने को जी चाहता है – ग्रेनाइट के स्तम्भ के निकट कलाकार ने पैडेस्टल की तस्वीर बनाई है, जिस पर एक इबारत है, लैटिन से अनुवाद करने पर वो इस तरह है : “ईजिप्ट की कला का पीटर्सबुर्ग में पुनर्जन्म हुआ है 1810”. फ़राओन के स्फिंन्क्स,  जो तब तक मिले नहीं थे, उस समय रेत की पर्तों के नीचे दबे पड़े थे, और ग्रेनाइट का स्तम्भ एकॅडेमी के आँगन में उनका इंतज़ार कर रहा था. मगर – देर हो गई.

वैसे तो यहाँ काफ़ी सारे स्तम्भ हैं – गार्डन के दोनों ओर स्तम्भों की पंक्तियाँ हैं. मगर ये सारे स्तम्भ किसी उद्देश्य से हैं – उसे संभाले हुए हैं, जो उन्हें संभालना चाहिए. दर्शनीय भाग के सामंजस्य को कुछ ऊँचे पेड़ बिगाड़ते हैं, जो दृश्य को ढाँक देते हैं. कार्ल ब्र्युलोव के ज़माने में ये जगह अच्छी तरह दिखाई देती थी. पुनर्स्थापित किया गया स्तम्भ, सचमुच में पिछली सालगिरह की याद में,  रूम्यान्त्सेव स्मारक-स्तम्भ से सामंजस्य स्थापित कर सकता था, जो आज भी एकॅडेमी के गार्डन से दिखाई देता है. वर्तमान में स्तम्भ अपने आप खड़ा है, मगर ये नहीं कह सकते कि वह अकेला है. उससे सौ मीटर्स की दूरी पर ऊपर जाता हुआ एक पाईप है – यहाँ मोजाइक के वर्कशॉप्स हैं. वे ही, जिनमें सेंट आइसाक चर्च के लिए मोज़ाइक बनाया गया था और मॉस्को-मेट्रो के लिए भी. वे अभी भी कार्यरत हैं, मगर रंगीन शीशे बनाने की आधुनिक तकनीक से पाईप के बगैर काम चल जाता है. स्तम्भ और पाईप की ऊँचाई लगभग समान है. जब हम स्तम्भ की ओर देखते हैं तो नज़र पाईप की ओर देखना नहीं चाहती. मगर एक बार ये देखकर, कि ग्रेनाइट का स्तम्भ और ईंटों का पाईप एक दूसरे के पूरक हैं, आप उनकी अप्रत्याशित जोड़ी पर ध्यान दिए बगैर नहीं रह सकते. ये स्तम्भ...क्या कहें?...ये स्तम्भ है. और पाईप – श्रमजीवी है. ज़िंदगी भर काम करने के बाद, हड्डी तोड़ मेहनत करने के बाद, अब वह ख़ुद ही स्मारक बन गया है. तो, वे वैसे ही खड़े हैं एक दूसरे के सामने, दो स्मारक : एक – सालगिरह को समर्पित, दूसरा – रोज़मर्रा की ज़िंदगी को. 

                                                       
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* एक तरह से स्तम्भ के भाग्य ने एकॅडेमी के कॉन्फ्रेन्स-सेक्रेटरी और रूस के एक प्रसिद्ध फ्रीमैसन ए. एफ. लाब्ज़िन के भाग्य का निर्णय कर दिया : अलेनिन वाली घटना का परिणाम ये हुआ कि लाब्ज़िन को अपने पद से हाथ धोना पड़ा और उसे निर्वासित कर दिया गया – ये सच है कि उसे अपने फ्रीमैसोनिक विचारों की नहीं, बल्कि अपनी प्रखर बुद्धिमत्ता और लम्बी ज़ुबान की कीमत चुकानी पड़ी.