दुर्भाग्य से जूझता
वारसा स्टेशन के
पास वाला लेनिन – ऐसा ही हम इस स्मारक को जानते थे.
अब वारसा स्टेशन
बिल्कुल रेल्वे स्टेशन नहीं है, और काँसे
का भीमकाय ल्यिच अब उसके स्वयम् के
लिए भी अप्रत्याशित जगह पर लोगों की नज़रों से छुपा हुआ है...
अजीब भाग्य है इस
स्मारक का – पीटर्सबुर्ग के मापदण्डों के अनुसार भी अजीब. और एकदम सही : भाग्य. वो
जो जनम से उसके लिए लिखा है. दुर्भाग्य.
पहली बात :
शिल्पकार तोम्स्की ने शुरू में यह स्मारक इसलिए नहीं बनाया था, कि वह रेल्वे स्टेशन के दर्शनीय भाग में एक
कोने में फिट हो जाए. ‘यह’ लेनिन इस जगह के लिए
नहीं सोचा गया था और इस शहर के लिए भी नहीं. सर्वनाम “यह” का उपयोग लेनिन के
संदर्भ में स्मारक के रूप में मैंने व्यापक अर्थ में उपयोग किया है, क्योंकि संकीर्ण अर्थ में “यह”, विशिष्ट लेनिन होगा –
यह लेनिनग्राद का लेनिन – शिल्पकार की पुनरावृत्ति है “दूसरे” - आरंभ में वरोनेझ
में, युद्ध से पहले, शहर के केन्द्र
में, लेनिन स्क्वेयर में स्थापित किए गए मूल लेनिन की
प्रतिकृति है. वरोनेझ वाली मूल कलाकृति को तीन साल से भी कम समय दिया गया था
स्मारक जर्मन कब्ज़े को बर्दाश्त नहीं कर सका, उसे कैद करके
पिघला दिया गया. काश, सिर्फ इतना होता! ये है – दूसरी बात :
जहाँ तक दुर्भाग्य का संबंध है. वरोनेझ वाले जानते हैं: इल्यिच
के फैले हुए हाथ को कब्ज़ा कर चुके जर्मनों ने कम से कम एक बार हत्या का औज़ार बनाया
था. ईमानदारी से कहूँ तो, मैंने पहले इस बात पर विश्वास नहीं
किया, कि लेनिन के स्मारक पर एक आदमी को फाँसी दी गई थी, सोचा कि ये ख़ौफ़नाक किस्सों में से कोई एक स्थानीय किस्सा है, मगर कुछ नहीं कर सकते – पता चला, कि इससे संबंधित
फोटो मौजूद है,
युद्ध के
बाद इस खोए हुए स्मारक को पुनर्स्थापित करने का फ़ैसला किया गया, और
देखा, कि नेता की अस्सीवाँ जन्मदिन है. शिल्पकार तोम्स्की ने
रचनाकार की प्रतिकृति पर काम किया, बल्कि दो प्रतिकृतियों पर
– दूसरी का उद्घाटन लेनिन के जन्मदिन पर वरोनेझ में किया गया,
और पहली, बिल्कुल वैसी ही, छह महीने पहले – नवम्बर की छुट्टियों के उपलक्ष्य में लेनिनग्राद में
स्थापित की गई. वैसे, उस समय तक वारसा रेल्वे स्टेशन के
पुनर्निर्माण का काम पूरा हो गया था, और सामने वाली रंगीन
काँच की खिड़की के स्थान पर, जो पहले दर्शनीय भाग को सुशोभित
कर रही थी, एक बड़ा सा आला बना दिया गया. बेशक, लेनिनग्राद निवासियों को, जो स्मारक के उद्घाटन के
अवसर पर मौजूद थे, पहले वाले, वरोनेझ
के अवतार से जुड़ी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के बारे में कोई ज्ञान नहीं था – इस
स्मारक को उन्होंने ख़ास अपना ही समझा, जैसे उसने पहली बार
जन्म लिया हो, जिस पर किसी भी बात का बोझ न हो – किसी भी तरह
की पुरानी, खूब पुरानी अवसादपूर्ण यादों का.
मगर
परेशानियाँ,
काफ़ी थीं.
और अब हम
उँगलियों पर गिनते हैं : तीसरी बात.
बात ये
है,
कि वारसा रेल्वे स्टेशन के पास वाले काँसे के लेनिन की स्वतंत्रता
सिर्फ विशिष्ठ अवतार की धुँधली यादों से उतनी सीमित नहीं थी, जितनी काँसे के स्टालिन का जोड़ीदार बनाने के घातक कर्तव्य से, जिसे इसी शिल्पकार, तोम्स्की ने ही बनाया था और जिसे
निकट ही स्थापित किया गया था – अबवोद्नी कॅनाल वाले पार्क में. बात इस बारे में
नहीं हो रही है, कि ये आकृतियाँ असंगत हैं (सब कुछ अनुरूप
है), मगर इस बारे में है, कि एक स्मारक
दूसरे पर निर्भर कर रहा है, इस घटना में – लेनिन स्टालिन पर.
दोनों स्मारकों का – लेनिन के, और स्टालिन के भी – उद्घाटन
एक ही दिन, 5 नवम्बर को, किया गया,
मगर असल में ये स्टालिन के जन्मदिन का अवसर था. दिसम्बर ’49 में स्टालिन की 70वीं सालगिरह मनाई गई, तो नवम्बर की
छुट्टियों के पहले लेनिनग्राद में स्टालिन के एकदम चार (!) स्मारकों का उद्घाटन
किया गया – तीन पूर्णाकृति और एक अर्धप्रतिमा, और वो भी उस
शहर के स्क्वेयर्स और रास्तों पर, जहाँ अब तक आम तौर से जनरल
सेक्रेटरी के स्मारक के बगैर ही काम चल रहा था! जैसे, वैचारिक
खामियों को सुधारने का वक्त आ गया था.
मगर,
फिर होता क्या है? होता ये है, कि
वरोनेझ के लेनिन की पुनर्स्थापना लेनिन के अस्सीवें जन्मदिन पर की जाती है,
और बिल्कुल वैसे ही लेनिनग्राद के लेनिन का उद्घाटन स्टालिन के
सत्तरवें जन्मदिन पर किया जाता है – जैसे कम्पनी देने के लिए, जैसे एक किट का हिस्सा हो… जैसे परिशिष्ट हो.
असल में
स्टालिन का सत्तरवाँ जन्मदिन चार-चार स्टालिनों के एक साथ आगमन का मुख्य कारण नहीं
था. स्टालिन ने स्पष्टतः लेनिनग्राद को अपने आधीन कर लिया, क्योंकि
स्टालिन (व्यक्ति) के विचार में यहाँ कुछ गलत हो रहा था. लेनिनग्राद के अग्रणी
नेताओं के पार्टी विरोधी और सरकार विरोधी प्रश्न का अध्ययन इस समय तक पूरा नहीं
हुआ था, मगर ‘लेनिनग्राद मामले’
के पहले कार्यकर्ताओं को गिरफ़्तार कर लिया गया था. और इस मामले से
संबंधित आरंभिक मृत्युदण्ड के लिए साल भर से भी कम समय बाकी था.
और यही
है,
शायद, चौथी बात. इल्यिच के स्मारक का उद्घाटन सबसे
अच्छे समय में नहीं हुआ.
और, ये
रही पाँचवीं बात. जिसका जगह से संबंध है. अच्छी जगह नहीं है. वो जगह है, जहाँ खून की नदियाँ बही थीं. वो भी सिद्धांतों की ख़ातिर – दूसरे शब्दों
में बिल्कुल औपचारिक ढंग से.
यहाँ, वारसा
स्टेशन के सामने, एक
ज़माने में आंतरिक मामलों का मंत्री, वी. पी. प्लेवे मारा गया
था – सोशलिस्ट क्रांतिकारी सज़ोनव ने उस पर बॉम्ब फेंका था. हत्या की जगह पर लिए गए
फोटो में साफ़ दिखाई देता है, कि कैसे विस्फोट से रंगीन काँच
की खिड़की उड़ गई थी – इसी जगह पर बाद में काँसे का लेनिन प्रकट हुआ था.
लेनिन का
प्लेवे के प्रति बेहद निषेधात्मक रवैया था, प्लेवे के बारे में उसकी
राय मशहूर है – “पुलिस की चालाक लोमड़ी”. लगता है, कि
प्रोसेक्यूटर वीशिन्स्की ने इसी छबि को रचनात्मक रूप से प्रस्तुत किया, जब काफ़ी बाद में उसने ज़ोरदार शब्दों में बुखारिन को “लोमड़ी और सुअर का
शापित मिश्रण” कहकर प्रमाणित किया था. मगर लेनिन का प्लेवे के व्यक्तित्व के साथ
चाहे जैसा भी संबंध रहा हो, उसने उसकी हत्या का स्वागत नहीं
किया , क्योंकि वह सैद्धांतिक रूप से व्यक्तिगत आतंक के
ख़िलाफ़ था, जो उसकी राय में, सर्वहारा
वर्ग को क्रांतिकारी संघर्ष से विचलित करता है. ये प्रसिद्ध है : “कोई भी हमें
मुक्ति नहीं देगा : न ख़ुदा, ना त्सार और न ही ‘हीरो’. ‘हीरो’ – ख़ास इसीके
बारे में है. अचरज की बात तो कुछ और है: “द इन्टनेशनल” के इस सूत्र की पूर्णता के
अनुसार “ख़ुदा का भी, और त्सार का भी” –– वारसा रेल्वे स्टेशन पर लेनिन की पुनर्स्थापना से सीधा
संबंध है.
क्योंकि, छठी
बात, वारसा रेल्वे
स्टेशन पर लेनिन किसी और के स्थान पर खड़ा है. लेनिन का स्मारक उस जगह पर है,
जहाँ पहले कोई और स्मारक था – एक छोटे चर्च का, जो बोर्की में ट्रेन दुर्घटना में शाही परिवार के आश्चर्यजनक रूप से बचने
की याद में बनाया गया था. काँच के इस छोटे-से गिरजाघर में रंगीन काँच की खिड़की में
रक्षक फरिश्ते की आकृति है. बेशक, बोर्की की घटनाओं (1888)
से लेनिन का कोई संबंध नहीं था. इतना ही कहना काफ़ी है, कि
शाही परिवार की हत्या की ज़िम्मेदारी उस पर है, जिसका स्मारक
उसके रक्षक के सम्मान में बने गिरजाघर के स्थान पर बनाया गया है.
ये भी कह
सकते हैं
: अलेक्सान्द्र III और उसके परिवार के सुरक्षित बचने वाली घटना
की याद में बनाए गया स्मारक के स्थान पर उस व्यक्ति का स्मारक आ गया, जिसके
भाई ने त्सार की हत्या करने की कोशिश की थी, जिसके लिए उसे
फाँसी पर लटका दिया गया.
एक अन्य
युग में हम इसी तरह के प्रतिस्थापन के साक्षी थे, मगर विपरीत दिशा में : जब
मार्बल पैलेस के पार्क में लेनिन की बख़्तरबंद कार “पूँजीवाद की मृत्यु” के स्थान
पर, जो बोल्शेविकों की प्रमुख पवित्र वस्तुओं में से एक थी,
प्रकट हुई उसी अलेक्सान्द्र III की घोड़े पर सवार शिल्पकृति,
पाओलो त्रूबेत्स्की की प्रसिद्ध रचना प्रकट हुई.
तो, वारसा
रेल्वे स्टेशन के दर्शनीय भाग के कोने में
लेनिन के स्मारक के प्रकट होने के पीछे इतनी भयावह कार्मिक उलझनें थीं, कि यहाँ उसके आधी शताब्दी से अधिक सही-सलामत अस्तित्व के बारे में सोचकर
आश्चर्य होता है. और हाँ, नब्बे के दशक में उस पर कई बार रंग
उंडेला गया, मगर फिर भी वह नई सहस्त्राब्दि तक पहुँच ही गया.
और वैसे भी अपने ज़माने के सभी स्टालिनों से भी अधिक समय तक खड़ा रहा, अबवोद्नी कॅनाल वाले अपने जोड़ीदार समेत.
वह कोना
आज तक उसके लिए भरोसेमंद आश्रयस्थल बना हुआ है. जब हम अबवोद्नी कॅनाल के
किनारे-किनारे दर्शनीय दीवार के पास से गुज़र रहे थे, तो गहराई में स्थित ख़ुद
लेनिन को हम पूरा नहीं देख सके, मगर उसके हाथ को देखा,
जो धृष्ठता से बाहर की ओर निकला था, मुझे
ख़ासकर ये कोण अच्छा लगा. पब्लिक लाइब्रेरी की मुख्य बिल्डिंग के दर्शनीय भाग के
साथ-साथ टहलते हुए भी ऐसा ही नज़ारा देखने को मिलता है : स्तम्भों के कारण किनारे
से मूर्तियाँ नहीं दिखाई देतीं, मगर एक हाथ – ये डेमोस्थेनीज़
का हाथ है, बाहर दूर तक फैला हुआ है. लेनिन, बेशक, डेमोस्थेनीज़ का सम्मान करता था.
काँसे के
इल्यिच पर दुर्भाग्य की मार पड़ी सन् 2005 में, और तब उसका मानो तांडव ही
शुरू हो गया. वारसा स्टेशन के पुनर्निर्माण के कारण स्मारक लुप्त हो गया. खुद
स्टेशन भी मनोरंजन केंद्र “वारसा एक्स्प्रेस” में परिवर्तित हो गया.
इज़्माइलोव्स्की प्रॉस्पेक्ट के विस्तार की ख़ातिर रेल्वे स्टेशन को नष्ट करने के
प्रश्न पर सोवियत काल से ही विचार हो रहा था, और कहते हैं,
कि सिर्फ लेनिन के स्मारक के कारण रेल्वे स्टेशन को छुआ नहीं गया.
पता नहीं, ये सच है या नहीं. चाहे जो भी हुआ हो, बिल्डिंग अभी तक अपनी जगह पर ही है, मगर इल्यिच को
ध्वस्त कर दिया गया.
उसके उस
तरफ़ के रहने वालों ने, जिन्हें स्मारकों में दिलचस्पी थी, बेशक, उसके लुप्त होने पर गौर किया, मगर उनकी तकलीफ़ को बढ़ा-चढ़ा कर नहीं बताऊँगा. ये मान लिया गया, कि काँसे का लेनिन बगैर कोई सुराग़ छोड़े गायब हो गया है. पता चला कि ऐसा नहीं है. सन् 2010में पत्रकारों को लेनिन के ठिकाने का पता
चला, जिसके बारे में उन्होंने दुनिया को सूचित कर दिया. हुआ
ऐसा, कि इन सालों में इल्यिच पूरे समय स्तारो-पानोवा
मरम्मत-कारखानों के क्षेत्र में खड़ा रहा, जो लीगवा रेल्वे
स्टेशन से ज़्यादा दूर नहीं है. अच्छा-ख़ासा ऊँचा, वह कारखाने
की छत पर गर्व से चढ़ गया, मगर ये जगह काफ़ी सुनसान है,
और उसे सिर्फ वे ही लोग देख सकते थे जो घुमौने दरवाज़े वाले प्रवेश
द्वार को पार करके उस तरफ़ जा सकते थे, जहाँ, आँगन के काफ़ी भीतर धकेला गया लेनिन था, और अपना
वक्ता वाला अंदाज़ प्रदर्शित कर रहा था. दिन में दीवार के और बिल्डिंग्स के पीछे से
औद्यौगिक क्षेत्र की ख़ास आवाज़ें सुनाई देतीं : कहीं कुछ घिसा जाता, कुछ घसीटा जाता. रातों को आवारा कुत्ते भौंकते. गात्चिना-बाल्तीस्काया की
तरफ़ जाती हुई और वहाँ से वापस लौटती हुई रेलों का शोर, शायद
इल्यिच को अपने रेल्वे स्टेशन के भूतपूर्व निवास स्थान की, और
इस बात की भी याद दिलाता हो कि उसे ऑक्टोबर-रेल्वे स्टेशन के संतुलन से हटाया नहीं
गया था. रेल्वे वालों को ज़ाहिर है, पता नहीं था, कि अपनी संपत्ति को कैसे ठिकाने लगाएँ, और अगर सब
लोग उसके बारे में भूल जाते तो उन्हें ख़ुशी ही होती, शायद
इसीलिए लेनिन को मरम्मत की प्रक्रियाओं से परेशान नहीं किया गया. दूसरे शब्दों में,
वह अनिश्चितकालीन कारंटाइन में था. लेनिन के कई स्मारकों ने अकेलेपन
को बर्दाश्त करना सीख लिया था, वैसा इस स्मारक के बारे में
नहीं कहा जा सकता. इस लेनिन के लिए तनहाई सज़ा के समान थी – आख़िर वह भाषण देने वाला
लेनिन था.
एक ही
चीज़,
जो लेनिन को ख़ुशी दे सकती थी, वह था उस सड़क का
नाम, जिस पर ये कारखाना स्थित है. सड़क का नाम था ‘श्रमजीवी मार्ग”.
दुनिया
में अच्छे लोग भी होते हैं. वैसे लोग भी निकल आये, जिन्होंने इल्यिच को बचाने
का फ़ैसला कर लिया. अब तो ये समझना मुश्किल है, कि स्मारक को
नष्ट करने की धमकी कितनी गंभीर थी – जैसे “गलाना” ये शब्द किसी ने कहा था, मगर किसने? क्यों? किन हालात
में? चाहे जो हुआ हो, मगर उसे सबसे
बुरे परिणाम से बचा लिया गया – तो, हर हाल में, रक्षा करने वालों ने इस बात पर विश्वास कर लिया. भाग्य ने स्मारक को बचाने
के लिए उनके नेता – पी. एस. लेस्गाफ़्त नेशनल स्टेट युनिवर्सिटी ऑफ फिज़िकल कल्चर,
स्पोर्टस एण्ड हेल्थ के रेक्टर को – एक अधिकारी के रूप में भेजा.
उसी ने काँसे के इल्यिच के लिए अपने प्रशासन के तहत उच्च सिक्षा संस्थान की सीमा
में विश्वसनीय आश्रय स्थल का इंतज़ाम किया.
नई जगह
पर ले जाने के लिए ख़ास मशक्कत करनी पड़ी. लेनिन को चार धुरी वाले कार्गो-ट्रेलर के
प्लेटफॉर्म पर पीठ के बल लिटाया गया – ऐसे ट्रेलर्स का इस्तेमाल हर तरह के बड़े
सामान को ले जाने के लिए किया जाता है, - कस कर जंज़ीरों से बांध
दिया गया. लेटे हुए लेनिन का हाथ आसमान की ओर उठ गया. किन्हीं षड़यंत्रकारी
कल्पनाओं की आशंका से उसके सिर और धड़ के कुछ हिस्से पर कोई भूरा-हरा कपड़ा लपेट
दिया गया, जिसने आने-जाने वालों को पहली ही नज़र में उसे
पहचानने में कोई बाधा नहीं डाली. हो सकता है, सिर पर इसलिए
कपड़ा बांधा गया था, जिससे उसे ख़ुद को पता नहीं चले, कि उसे कहाँ ले जा रहे हैं. नेशनल टी.वी. की टेलिविजन टीम ने इस ट्रेलर को
रीम्स्की-कर्साकव मार्ग पर पकड़ा – सभी के लिए उपलब्ध “तस्वीर” के लिए इतिहास उनका
ऋणी है. रिपोर्ताझ का अंत पूरा नहीं था : फोटोग्राफ़र्स की टीम को लेस्त्गाफ्त में
घुसने नहीं दिया गया.
लेनिन
आँगन में खड़ा है. उसके नीचे वाला पैडेस्टल इतना नीचा है, कि
उसे अनदेखा किया जा सकता है – समझ सकते हैं, कि वह ज़मीन पर ही
खड़ा है. पीठ के पीछे – दीवार है. दीवार के पीछे (दूसरी तरफ़ से भी प्रवेश है) –
थ्योरी एण्ड प्रैक्टिस ऑफ हॉकी का विभाग. लेनिन की बगल में दो पेड़ हैं. एक पर
लेनिन के सिर की ऊँचाई तक एक बर्डहाउस ठोंका गया है.
इस बात
पर गौर करना होगा,
कि जब इसे यहाँ लाया गया, तब युनिवर्सिटी में
पहले से ही लेनिन का एक स्मारक मौजूद था. वह काफ़ी साधारण था, हालाँकि
पूरा सुनहरा था. मगर स्मारकों को अपने जैसों का पड़ोस पसंद नहीं आता, और अब – तथाकथित पहले आँगन में – पहले वाले लेनिन की याद सिर्फ क्युबिक
पैडेस्टल दिलाता है, जिस पर अभी तक किसी ने कब्ज़ा नहीं किया
है.
फिर
लेस्गाफ्त युनिवर्सिटी में ख़ुद लेस्गाफ्त का स्मारक भी है. लेनिन और लेस्गाफ्त एक
दूसरे से परिचित थे. अपने ज़माने में लेस्गाफ़्त ने शारीरिक प्रशिक्षण के लीडर्स और
शिक्षिकाओं के लिए कोर्सेस का आयोजन किया था, पिछली शताब्दी के आरंभ में
लेनिन ने वहाँ पढ़ाया था. लेनिन के स्मारक के अधिग्रहण का कारण आंशिक रूप से इस
ऐतिहासिक घटना में निहित है. व्यक्तिगत रूप से मेरी राय कुछ और है : जिस तरह से
लेस्गाफ्त ने अपने कोर्सेस में पढ़ाने के लिए लेनिन को आकर्षित किया था, उसी तरह लेस्गाफ्त के स्मारक ने लेस्गाफ्त युनिवर्सिटी में लेनिन के
स्मारक को आकर्षित किया.*
लेस्गाफ्त
की रचनाओं में एनाटॉमी पर लिखी पुस्तकें शामिल हैं. क्या लेनिन को एनाटॉमी में
दिलचस्पी थी?
क्रेमलिन की लेनिन लाइब्रेरी की पुस्तक सूची में लेस्गाफ्त की “ए
कोर्स ऑन थियोरिटिकल एनाटॉमी” शामिल नहीं है. मगर इसका मतलब ये नहीं, कि एनाटॉमी की समस्याओं के प्रति लेनिन उदासीन था. एक भौतिकवादी होने के
नाते उसे एनाटॉमी का समुचित ज्ञान था. इस बात की गहराई में नहीं जाएँगे, मगर ये भी सच है, कि सैद्धांतिक एनाटॉमी के क्षेत्र
में हुई उपलब्धियों ने लेनिन के शरीर के मृत्योपरान्त भाग्य को प्रभावित किया.
मतलब, मुझे इसमें कोई अजीब बात नहीं दिखाई देती, कि लेनिन का स्मारक एनाटॉमी विभाग की खिड़कियों की ओर देख रहा है. अगर
चाहें, तो लेनिन और एनाटॉमी के बीच किसी ज़्यादा मज़बूत संबंध
को खोजा जा सकता है.
स्मारक
की सही ऊँचाई बताना बाकी है. साढ़े पाँच मीटर्स. ये काफ़ी है, ये
सचमुच काफ़ी है. वारसा स्टेशन वाला स्मारक –
लेनिन के शहर में लेनिन के स्मारकों में सबसे ऊँचा है. जब सन् 1949 में उसका
उद्घाटन किया गया था, तब वह लेनिनग्राद का सबसे ऊँचा लेनिन
था. इस समय वह दूसरे नम्बर पर है. उससे ऊँचा सिर्फ मॉस्को प्रोस्पेक्ट पर
अनिकूशिन्स्की वाला लेनिन है.
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* लेनिन के पहले वाले स्मारक का उद्घाटन 23 अप्रैल
2007 को हुआ था. पैडेस्टल की किनारे वाले पार्श्व पर लगाए गए पटल पर ये इबारत है :
“व्ला. इ. उल्यानव (लेनिन) द्वारा हस्ताक्षरित पीपल्स कमिसार्स की सोवियत के आदेश
पर सन् 1919 की गर्मियों में पी.एफ. लेस्गाफ्त की फैकल्टीज़ के कोर्सेस के आधार पर
प्रथम स्टेट इन्स्टीट्यूट ऑफ फिज़िकल एजुकेशन” की स्थापना की गई”.




