बुधवार, 31 अक्टूबर 2018

Monuments of Petersburg - 20




विशेष मिशन




उस रात चंद्र ग्रहण था. हम दोस्तों से मिलकर ज़ागरोद्नी एवेन्यू पर जा रहे थे. सब बहुत ख़ुश थे. पूरा ग्रुप जाम्बूल उद्यान पथ की ओर मुड़ा और अचानक कूरीत्सिन खो गया.

रुक गए. पब्लिक गार्डन में रात की ज़िंदगी गरमा रही थी – कुछ परछाइयाँ ख़ामोशी से घूम रही थीं. दो दाढ़ी वाले मुंडेर पर अभी शुरू की गई बोतल के साथ बैठे थे. रात गर्म थी, लगभग दक्खिन की रात जैसी, सिर्फ झींगुरों की कमी थी. ऐसा लग रहा था, कि लोगों को यहाँ ग्रहण में कोई दिलचस्पी नहीं थी. मगर अंधेरे चाँद के नीचे यहाँ पर हर चीज़ कुछ रहस्यमय, अलौकिक लग रही थी.
कुरीत्सिन गार्डन की गहराई से अचानक वैसे ही प्रकट हुआ, जैसे गायब हो गया था. अनकहे विचारों की हलचल ने लेखक के चेहरे को उत्तेजित कर दिया था. हम आगे बढ़े – कुरीत्सिन किसी के बारे में बता रहा था. जैसे, सब उसे गालियाँ देते हैं, मगर यदि वो यहाँ नहीं होता, तो यहाँ गार्डन नहीं, बल्कि किसी बहुमंज़िला इमारत की बेतुकी प्रतिकृति होती...

विचेस्लाव कुरीत्सिन न सिर्फ सहनशील है, बल्कि स्वभाव से तरफ़दारी करने वाला भी है.
वह जाम्बूल के स्मारक के बारे में बता रहा था.

हम जाम्बूल के स्मारक के बारे में भूल ही गए थे, रात को जैसे वह वहाँ था ही नहीं.

कुरीत्सिन की कहानी से मैं चौंक गया. अजीब बात है, कि इतनी सीधी बात मेरे दिमाग़ में नहीं आई. मेरे – जो स्मारकों के उद्देश्य के बारे में इतना ज़्यादा सोचता रहता है.

काँसे का जाम्बूल – पीटर्सबुर्ग की तीन सौवी सालगिरह पर मिले अनेक उपहारों में से एक – स्मारकों की महान फ़ौज का एक सहभागी था, जिसने पीटरबुर्गवासियों को कुछ सतर्क कर दिया था. मिखाइल ज़लतानोसव ने इस अद्वितीय ऐतिहासिक घटना के बारे में काफ़ी कुछ और विस्तार से लिखा है, 41 लगता है कि उसमें कुछ और जोड़ने की ज़रूरत नहीं है. उसकी किताब “काँस्य-युग” में ख़ुद स्मारकों का, उनके रचनाकारों का, संरक्षकों का, और कभी-कभी शाश्वत हो गई वस्तुओं का भी ज़िक्र है.

वाकई में, जाम्बूल – उत्कृष्ट है. जाम्बूल के शब्दों से कज़ाक महाकाव्य का अधिकतम भाग लिखा गया है. ये भी सच है, कि तीस के दशक में उसके नाम का बेरहमी से दुरुपयोग किया गया. “वीर योझव के गीतों में” और इसी तरह के अन्य गीतों में. मुझे याद है, कि जब मैं विद्यार्थी था, तो मुझे नब्बे साल के आशु कवि की गहरी कविताओं ने, जो मुझे “युवा कल्खोज़्निक” नामक पत्रिका के पुराने अंक (1938, अंक 3) में मिली थीं, इतना प्रभावित किया था, कि मैंने फ़ौरन उन्हें अपनी नोटबुक में लिख लिया था. आशु कवि जाम्बूल की तरफ़ से, अनुवादक कन्स्तान्तिन अल्ताय्स्की की कोशिशों से – जिसका तब तक दमन नहीं हुआ था – “नाश करो!” इस प्रभावशाली शीर्षक से जनता के दुश्मनों का विनाश करने का ज़ोरदार लयबद्ध आह्वान दिया गया था : “धिक्कार करों उनके कामों का, झूठी बातों का / हरण करो राक्षसों से मानवीय नामों का! / चलती लाशें, हत्यारे, झूठे - / युद्ध की आग से हमें डराते वे...”

जाम्बूल का नाम युद्ध के बारे में कविताओं, बल्कि, लेनिनग्राद के घेरे को समर्पित कविताओं के कारण लेनिनग्रादवासियों को लम्बे समय तक याद रहा. “लेनिनग्रादवासियों, मेरे बच्चों!...” – और ये इतना महत्वपूर्ण नहीं है, कि क्या उम्र के दसवें दशक में वह ख़ुद कज़ाख़्स्तान की स्तेपियों से हमसे मुख़ातिब हुआ था, या ये ज़्यादा विश्वसनीय है, कि अनुवादक” मार्क तर्लोव्स्की ने उसकी अपील की नकल की थी (ज़लतानोसव ने लेख का काव्यात्मक विश्लेषण किया था), महत्वपूर्ण बात दूसरी है, कि इसे उस समय किस रूप में ग्रहण किया गया – घेराबंदी के दिनों में. ये सिर्फ साहित्यिक घटना से भी कुछ अधिक ही था.

तो, आशु कवि हमेशा रहे. ये है वो जगह...

जाम्बूल के स्मारक का इस जगह से सिर्फ इतना ही संबंध है, कि ये जाम्बूल उद्यान-पथ है, और जाम्बूल उद्यान-पथ, जिसका पुराना नाम लेश्तुकोव-पथ था, ऐतिहासिक जाम्बूल से उसी तरह पेश आता है, जैसे चंद्र ग्रहण, जिसका वर्णन इस लेख के आरंभ में किया गया है, जाम्बूल के स्मारक से पेश आता है. मगर स्थानीय निवासियों को वह, शायद, अच्छा लगता है (एक बार पूछताछ की थी). भला है, कहते हैं...अच्छी तरह खड़ा है...किसी को परेशान नहीं करता...

ये भी सही है. छोटे से गार्डन में भूतपूर्व अपार्टमेन्ट-बिल्डिंग्स के बीच, वह किसी प्रवासी कार्यकर्ता के रिश्तेदार की तरह लगता है, जो अभी-अभी बस्ती से आया हो; लम्बी पोषाक पहने हाथों में दोम्ब्रा (छोटा सा तम्बूरा – अनु.) लिए खड़ा है और दरबारी इबारत “त्रोयका” की ओर देख रहा है, जो एक रेस्तराँ को दर्शाती है.

और सही ढंग से खड़ा है. कुरीत्सिन सही है, अगर वह यहाँ नहीं होता, और उसका उद्घाटन ख़ुद प्रेसिडेंट नज़रबायेव ने किया होता, तो यहाँ बेतुका निर्माण कार्य हो गया होता!

मगर जब बात ऐसी है, तो क्यों न इसी कोने में खड़े, शहर को प्राप्त हुए अन्य उपहारों पर भी क्यों न नज़र डाली जाए?

याद कर रहा हूँ, कि शुरूआत कहाँ से हुई थी. शायद, तरास शेव्चेन्का से. सन् 2000 में उसका भी अनावरण प्रेसिडेंटों ने किया था – तत्कालीन – रूसी और युक्रेनी. और शहर को स्मारक भेंट किया था ख़ुद  युक्रेनी मूल के कनाडावासी शिल्पकार, लिओ मोल ने.

वैसे, हाँ. लेनसवेत कल्चरल पैलेसपर, जो चाहे तीन बार कन्स्ट्रक्टिविज़्म शैली में बनाया गया है, डेवलपर्स इन्वेस्टर्स कब से, और सही में आँखें गड़ाए बैठे हैं, मगर बगल वाले गार्डन की ओर कोई आँख उठाकर भी नहीं देखता. कहीं इसलिए तो नहीं, कि वहाँ जगह पहले ही भर चुकी है और उसकी सुरक्षा करता है काँसे का तरास शेव्चेन्का?

कामेन्नाओस्त्रोव्स्की एवेन्यू पर बने एक स्मारक के बारे में, जिसका अनावरण पड़ोसी देशों (रूस और अज़रबैझान, 2002) के प्रेसिडेंटों की उपस्थिति में किया गया था, काफ़ी कुछ प्रशंसात्मक कहा गया है, मगर जो इस बात पर ज़ोर देते हैं, कि खूबसूरत कमान के नीचे चट्टान पर बैठा काँसे का पूरबी संत-कवि पीटर्सबुर्ग की परंपराओं के ख़िलाफ़ है, उनका ध्यान मैं स्मारक की सुरक्षात्मक भूमिका की ओर आकर्षित करना चाहूँगा. अगर बिल्डिंग्स नंबर 25 और 27-A के बीच वाले गार्डन में जवान लड़कियों और छरहरे पेड़ के उत्कीर्ण चित्र के साथ निज़ामी का स्मारक न प्रकट न होता, तो शायद 25-A या 27-B नंबरों वाली कोई और चीज़ प्रकट हो जाती. मगर ऐसा नहीं हुआ.

एक और उदाहरण. बड़ा कॉन्सर्ट हॉल “अक्त्याब्रस्की”. वैसे अगल-बगल में कुछ भी बनाने की इजाज़त नहीं है...मगर कौन जानता है, उन्होंने कज़ान कैथेड्रल के पीछे एक अकल्पनीय चीज़ खड़ा कर दी! तो, हो सकता है, कि सन् 1827 से ग्रीस के प्रेसिडेंट (और उसके पूर्व – रूसी राजनयिक), रहे इवानिस कपोदिस्ट्रीअस  का पूर्णाकृति स्मारक - अजीब, गंभीर आपत्तियों के होते हुए भी - इतने ऊँचे पैडेस्टल पर न केवल उचित है, बल्कि वहाँ ज़रूरी भी है? और ये बात, कि ख़ुद ग्रीस के प्रेसिडेंट ने सालगिरह के अवसर पर उसका अनावरण किया, सिर्फ स्मारक के गुप्त मिशन की पुष्टि करती है – खंभों से घिरी हुई जगह की सुरक्षा करना?...            

चीन के उपहार ने काफ़ी लोगों को परेशान कर दिया – गार्डन ऑफ फ्रेंडशिप, उर्फ शंघाई-गार्डन – लितेयनी एवेन्यू पर. लितेयनाया पर बना एक कम ऊँचाई का पगोडा, बहस की बात ही नहीं, ख़ास लगता है, और उससे भी ज़्यादा ख़ास हैं – दो शी-त्ज़ा की पत्थर की मूर्तियाँ. मगर यदि आप नहीं जानते, कि ये शेर-राक्षस यहाँ क्या कर रहे हैं और उनके कुछ खुले जबड़ों में बड़े-बड़े दाँतों के पीछे चौड़ी जीभों पर वज़नदार गोले क्यों रखे हैं (यूरोपियन्स को सिर्फ बूझना होगा कि तकनीकी दृष्टि से ये कैसे किया गया होगा). जानकार लोग कहते हैं कि दाँतों के पीछे गोले – नींद भगाने का साधन हैं : शेर को झपकी आने लगती है, तो उसका जबड़ा खुल जाएगा, गोला नीचे गिरेगा और वह फ़ौरन उठ जाएगा. शेर-राक्षसों के लिए सोना मना है. वे उन्हें सौंपे गए क्षेत्र की बुरी शक्तियों और दुष्ट राक्षसों से रक्षा करते हैं. प्रस्तुत परिस्थिति में – पास-पास बिल्डिंग्स बनाने वालों से. थैन्क्स, चीन.      
कोरिया को भी धन्यवाद चासिन (चासिन - रक्षक-आत्मा - अनु.) की तेरह मूर्तियों के लिए, जिन्हें कोरिया के वाणिज्य दूतावास की धनराशि से “सस्नोव्का” पार्क में स्थापित किया गया है. इन मूर्तियों को पिता और पुत्र ने रूसी चीड़ के वृक्षों से तराशा था, दोनों ही काष्ठ-शिल्पकार हैं, पिता का नाम कोरियन रिपब्लिक के गोल्डन फण्ड में 108वें नंबर पर है, जैसा कि स्मारक-पट्टिका द्वारा सूचित किया गया है. मूर्तियाँ काफ़ी दूर-दूर, काफ़ी विस्तृत क्षेत्र में स्थित हैं, उनकी जगह पर कुछ भी नहीं बनाया गया है. मगर यदि वे वसील्येव्स्की द्वीप पर होतीं, तो किसे पता, कि शायद, वहाँ टाऊन-प्लानिंग की गलतियों की इजाज़त न दी जाती...     

चीनी शेर शी-त्ज़ा और कोरियन चासिन मूर्तियाँ अपने नामों के अनुसार अपने-अपने क्षेत्रों की रक्षा करती हैं. हमारे यहाँ वही काम अन्य वस्तुएँ कर सकती हैं. जैसे, कलीलिनग्राद क्षेत्र के प्रमुख की उपस्थिति में जिसका अनावरण किया गया, वह दो शहरों के संबंधों का मील के पत्थर की शक्ल का स्मारक. चारों तरफ़ बेतहाशा निर्माण हो रहा है, मगर वह पार्क जो इस वस्तु से पवित्र हो गया है, अनछुआ ही रहा है.

एमिल नेल्लिगान के स्मारक का अनावरण कनाडा के प्रधान मंत्री ने किया था. क्वेबेक प्रांत के इस फ्रेंच-भाषी कवि के बारे में हमारे यहाँ कोई भी, कुछ भी नहीं जानता. एम. ज़लतानोसव ने नेल्लिगान के स्मारक को “पीटर्सबुर्ग की 300वीं सालगिरह का सबसे बेतुका तोहफ़ा” कहा है. मानता हूँ, मगर एक आपत्ति के साथ : बेतुका सिर्फ एक लिहाज़ से है – सही जगह पर स्थापित नहीं किया गया! “प्लेखानव-आवास” के सामने वह बेकार ही खड़ा है, जिस जगह पर वो खड़ा है, वह छोटी-सी होने के कारण उसे कोई ख़तरा नहीं है. अगर वह कज़ान्स्की कैथेड्रल के पीछे होता, पीने के पानी के फ़व्वारे से करीब सौ मीटर बाईं ओर, या कम से कम ज़ागरद्नी और गरोखवाया वाले नुक्कड़ पर तब तक विद्यमान पार्क में (वहाँ पेड़ लगे हैं), या, जैसे गरोखवाया और ग्रेट कज़ाक लेन के नुक्कड़ पर ही होता.... कहीं भी होता...तो क्या वहाँ ये नया भयानक पुनर्निमाण हो सकता था?

शिकायत कर रहे थे कि बहुत सारे उपहार दिए गए हैं...सब मिलाकर तीस से कुछ ऊपर...मगर तीस नहीं – तीन सौ होने चाहिए थे! कम से कम एक सौ नब्बे – संयुक्त राष्ट्र के सदस्यों की संख्या के अनुसार, तब तक मान्यता न प्राप्त हुए गणतंत्रों को छोड़ भी दो तो...शहर घनीकरण से पूरी तरह सुरक्षित हो जाता.

मेरी खिड़कियों के सामने एक गार्डन है. गार्डन के भीतर एक टुकड़े को घेर लिया गया है और वहाँ कुछ हो रहा है. कहते हैं, कि वहाँ एक होटल बनाया जाएगा. किसी को भी गार्डन के भीतर होटल नहीं चाहिए. पूरी ज़िंदगी यहाँ रहा हूँ और अभी हाल ही में मुझे पता चला है कि फोंतान्का और मॉस्को एवेन्यू के कोने पर बना हमारा गार्डन मार्शल गोवरोव गार्डन कहलाता है. मैं ये सोचने की हिम्मत भी नहीं कर सका कि एस्तोनिया को स्वतंत्र करवाने वाले जनरल के स्मारक का अनावरण उसके प्रेसिडेंट ने किया था, मगर, ये भी सच है, कि चाहे किसी ने भी यहाँ स्मारक स्थापित किया हो, चाहे जब भी किया हो, इस गार्डन को किसी चीज़ से कोई ख़तरा नहीं हो सकता था.

ठीक है, गोवरोव के लिए छोटी सी बात है. यहाँ गोवरोव को नहीं लाएँगे. गोवरोव स्ताचेक (स्ताच्का – हड़ताल – 1905 की क्रांति के दौरान मज़दूरों की हड़ताल से संबद्ध – अनु.) स्क्वेयर पर खड़ा है, उसे वहीं अच्छा लगता है.

यहाँ नेल्लिगान को लाना चाहिए. नेल्लिगान को!

अधिकारी, चाहे आप कुछ भी कहें, स्मारकों से डरते हैं – वे उनके साथ इश्क कर सकते हैं, उन्हें धमका सकते हैं, मगर एक बार वास्ता पड़ने के बाद, दुबारा कोई रिश्ता नहीं रखना चाहते, सावधान रहते हैं. कठोर उपाय  - अंतिम उपाय है.

और दिलचस्प बात ये है, कि स्मारकों की सुरक्षा के लिए लोग अपने आप अपील करते हैं. अक्टूबर 2007 में सभी समाचार एजेन्सियों ने प्रिमोर्स्की एवेन्यू की दो बिल्डिग्स के निवासियों की मौलिक पहल के बारे में सूचना दी. डेवलपर्स से बच्चों के पार्क को बचाने के लिए यहाँ पर रशियन फेडेरेशन के तत्कालीन प्रेसिडेंट के कोनी नामक लेब्राडोर कुत्ते का स्मारक बनाने का विचार किया गया. व्यावसायिक शिल्पकारों से इस ऑर्डर को पूरा करने की विनती की गई, और प्रेसिडेंट के प्रशासन से भी सम्पर्क किया गया. प्रशासन ने क्या जवाब दिया, मुझे पता नहीं, मगर स्थानीय शासन परेशान हो गया.

कहता तो हूँ, उनसे, स्मारकों से डरते हैं. वे – हमारे लिए हैं. वे ऐसे ही हैं. किसी स्मारक का सिर्फ विचार ही ख़ुद स्मारक से ज़्यादा भयानक होगा.

सितम्बर 2008                                    
------------------------------------
41. एम. एन. ज़लतानोसव. “काँस्य-युग”. सेंट पीटर्सबुर्ग, 2005, पृ. 410-414

रविवार, 28 अक्टूबर 2018

Monuments of Petersburg - 19



       गणितीय अंकों और संख्याओं के स्मारक






कुछ गैर-मानवाकृति वस्तुओं को, जो पीटर्सबुर्ग की सतह को सजाती हैं, गणितीय संख्याओं के स्मारक माना जाता है. मोटे तौर से कोई भी स्मारक, जो किसी ऐतिहासिक तारीख को समर्पित है, वो संख्या का भी स्मारक होता है – वर्षों की संख्या का.

अगर, मिसाल के तौर पर, स्मारक के (मॉस्को स्क्वेयर, मॉस्को एवेन्यू) ऊपर “लेनिन को - शताब्दी के अवसर पर” ये अक्षर खुदे हुए हैं, तो ये समझना चाहिए कि ये सिर्फ लेनिन का स्मारक नहीं है, बल्कि लेनिन की शताब्दी का भी, मतलब संख्या का स्मारक है.

आधुनिक पीटर्सबुर्ग में 100 की संख्या के स्मारकों की संख्या 300 की संख्या के स्मारकों से काफ़ी अधिक हो गई है. ये शहर की ख़ासियत है.

कैथेरीन दि ग्रेट को, जिसने एक शानदार शिलालेख: “पीटर प्रथम को – कैथेरीन द्वितीय”- लिखा था, संख्याओं के अनुक्रम और प्राकृतिक संख्याओं की श्रृंखला का ज्ञान था. मगर “ताँबे का घुड़सवार” – हमारा नायक नहीं है. फिलहाल हमें उन स्मारकों में दिलचस्पी है, जो सीधे संख्याओं को समर्पित हैं.

शून्य से शुरू करते हैं.
   





 शून्य का स्मारक

शून्य मील का पत्थर सेन्ट्रल पोस्टऑफ़िस के संचालन कक्ष में स्थापित किया गया था. जनता के सम्मुख उसे मार्च 2006 के अंत में पेश किया गया, जब सेन्ट्रल पोस्टऑफ़िस लम्बे नवीनीकरण के बाद खुला था. ऐसा मानते हैं, कि ये चीज़ उस संगमरमरी स्तम्भ का प्रतिरूप है, जिसे यहाँ अठारहवीं शताब्दी में लगाया गया था. वह सेंट पीटर्सबुर्ग से किसी स्थान की दूरी को दर्शाता है.

हुआ ऐसा, कि “शून्य मील के पत्थर” के उद्घाटन के बारे में मुझे पता नहीं चला. इस स्तम्भ के अस्तित्व के बारे में मुझे संयोगवश ही पता चला – मेरे पुराने परिचित - गणितज्ञ निकोलाय म्नेव से. अपने ब्लॉग पर इस सुरुचिपूर्ण स्मारक स्तम्भ का चित्र रखने के बाद गणितज्ञ एन. ई. म्नेव ने इस चीज़ की “शून्य का स्मारक” कहते हुए एकदम सही व्याख्या की थी. तब किसी बात ने मुझे अनंत के बारे में कहने पर मजबूर किया था – कि जिसका अस्तित्व नहीं है, शायद, ये स्मारक उसी का है, प्यारे...निकोलाय एव्गेन्येविच ने पूरी ज़िम्मेदारी से विरोध किया (उसकी प्यारी इजाज़त से उद्धरण देता हूँ) : अनंत के, मेरे विचार में, कुछ नियम होते हैं. गणित के परिसरों में कैसी-कैसी ज़ंग लगी चीज़ें चिपकाई गई हैं! शून्य सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण है! ग्रीकों के पास शून्य नहीं था. हालाँकि अनंत के बारे में यूँ ही बकवास करते थे. शून्य - कुछ नहीं – का आविष्कार भारतीयों ने किया था, गंगा के किनारों पर चिंतन करते हुए, गणना की स्थितीय प्रणाली के साथ, और ये चरम क्रांति थी – गिनना आसान हो गया”. और आगे : “मैं सोचता हूँ, कि अगर अर्किमिडीज़, जो गेलिलिओ, न्यूटन और लीब्नीत्ज़ से कम नहीं था, अगर शून्य और गणना की स्थितीय प्रणाली के बारे में जानता होता – तो हवाई जहाज़, अगर क्राइस्ट के नहीं, तो उसके निकट के काल में ही उड़ रहे होते”.         

ज़ाहिर है, कि शून्य के बारे में ऐसे शब्दों के बाद मैं अपनी जगह पर बैठा न रह सका और फ़ौरन इस असाधारण स्मारक को अपनी आँखों से देखने के लिए सेन्ट्रल पोस्ट ऑफ़िस चल पड़ा.

हाँ, ये शून्य का ही स्मारक है. जो भी स्तंभ की ओर देखता है उसकी आँखों को 0 का अंक स्पष्ट दिखाई देता है. शून्य का स्मारक काफ़ी ठोस दिखता है. देखने वाले को लगता है, कि वह संगमरमर का है. अति उत्सुक लोगों से सुरक्षा करने के लिए उसके चारों ओर जो विशेष मुंडेर लगाई गई है, उससे दो मीटर्स की दूरी पर ही रुकना पड़ता है. आगे जाना मना है. मैंने चुपके से प्रतिबंध को अनदेखा कर दिया. पहले मैंने शून्य के स्मारक का आँखों से जायज़ा लिया – बेहद करीब जाकर, और फिर उसे छुआ. मैं चौंक गया. वह संगमरमर का नहीं था! ये अपनी ही तरह की कोई नकली चीज़ थी. किसी चीज़ पर विशेष कागज़ चिपकाया गया था. डिब्बे(?) के जोड पर एक पतली झिरी दिखाई दी, और उसके भीतर से साफ़ दिखाई दे रहा था: भीतर खाली है! एक लब्ज़ में, ये शून्य ही था अत्यंत वास्तविक शून्य!...शून्य का स्मारक, शून्य का स्मारक होने का नाटक करता हुआ, वो भी संगमरमर के, मगर असल में कोई स्मारक ही नहीं!...मतलब स्मारक तो है – क्योंकि शून्य के किसी अन्य स्मारक की कल्पना करना असंभव है. शून्य ही शून्य है. चाहे वह स्मारक ही क्यों न हो!







एक के अंक का स्मारक

शायद, मैं शून्य के स्मारक के बारे में बात नहीं करता, अगर मेरी खिड़कियों से पहला और मॉस्को की दिशा का प्रमुख मील का पत्थर न दिखाई देता, जो शून्य बिंदु से वास्तविक दूरी को प्रदर्शित करता है. वास्तुशिल्पकार ए. रिनाल्डी है. सन् 1774 में बनाया गया. किस सामग्री से बना है – कोई शक नहीं – संगमरमर ही है. मॉस्को एवेन्यू की तरफ़ वाली इबारत ये है:

त्सार्स्कोए सेलो से
22/2
मॉस्को से
673/2

मतलब त्सार्कोए सेलो से दो मील दूर है, छह सौ तिहत्तर – मॉस्को से, और पीटरबुर्ग के (हाल ही में पुनर्स्थापित किए गए) “शून्य” से – दो. वाकई में, दो, मैंने जाँच की थी. “शून्य” से एक मील – ग्रीव्त्सोव लेन और कज़ान्स्काया स्ट्रीट वाला चौराहा है, वहाँ कुछ भी नहीं खड़ा है : शहर के भीतर मील का पत्थर लगाना बेवकूफ़ी है. इसलिए फोन्तान्का के बाएँ किनारे वाला स्तम्भ ही पहला मील का पत्थर है, यहीं से सेंट-पीटरबुर्ग की सीमा गुज़रती थी. फलस्वरूप, इस स्तम्भ को अंक “एक” का स्मारक समझना तर्कसंगत होगा. शून्य के स्मारक से वह वैसा ही भिन्न है, जैसा शून्य से एक भिन्न है.

अब मैंने सोचा, कि शहर में अन्य कोई दर्शनीय स्थल नहीं है, जिसे मैं इतना ज़्यादा देखता हूँ. खिड़की से देखो – वह स्तम्भ दिखाई देता है, सड़क पर निकलो – वो नज़र आता है. “एक” का स्मारक जैसे मेरा अपना है. मगर उसका भी एक रहस्य है. ये रहस्य है समय का, जिसे स्तंभ की दक्षिण-पश्चिम सीमा पर लगी हुई धूप-घड़ी दिखाती है, मगर असल में, नहीं दिखाती.

बेशक, पुराने ज़माने में यात्रियों के लिए धूप-घड़ी फ़ायदेमन्द थी. मगर जब से यहाँ सूरज को ढाँकती हुई बिल्डिंग्स बन गईं हैं (कुछ अंश तक वो बिल्डिंग भी, जिसमें मैं रहता हूँ), और ऊँचे-ऊँचे पेड़ों वाला बाग नष्ट हो चुका है, घड़ी “खड़ी है”. बचपन में मुझे हमेशा उस परछाईं को देखने का शौक था, जो डिजिटल स्केल पर एरो-ब्रेकेट द्वारा बनती थी (जिसे धूप-घड़ी का शंकु कहते हैं), मगर यहाँ प्रकाश की सीधी किरणें प्रवेश नहीं करती थीं – घड़ी काम नहीं करती थी, तब भी जब आसमान में सूरज होता. मगर रात को कुछ अजीब बात होती : घड़ी जीवित हो उठती और... रुक जाती. ये उस लालटेन का प्रकाश था, जो मॉस्को एवेन्यू से होकर जाने वाली पैदल यात्री-क्रॉसिंग पर लटकती थी और अस्पष्ट सी परछाई बनाती था, निरर्थक गंभीरता से रोमन अंक V की ओर इशारा करती थी. गलत वक्त. रात भर न बदलने वाला. पीटर ग्रीनअवे की दिमाग को झकझोरने वाली एक फिल्म है - “Vertical Features Remake”. मेरा ख़याल है, कि ग्रीनअवे हमारे मील के पत्थर में दिलचस्पी दिखाता, अगर उसे ये पता चलता, कि कोई अज्ञात ताकत इस वस्तु से ऊर्ध्वाधर संरचनाएँ पैदा करती है. ये सिर्फ मेरे दिमाग में है...पहले उसके निकट तीन यातायात-चिह्नों और ट्रैफ़िक लाइट वाला खंभा सरकाया गया, फिर यहाँ सिर्फ एक खंभा आया, फिर – बिल्कुल नज़दीक – दृश्य विज्ञापनों के लिए ऊपर जाती हुई संरचना. पुलिस की चौकी की कोई गिनती नहीं है. सबसे ऊंची वस्तु जो हमारी चार मंज़िला इमारत से डेढ़ गुना ऊँची है, सन् 2006 में प्रकट हुई G-8 की शिखर वार्ता से पहले – छह शक्तिशाली लाइट्स वाला सुई के आकार का मस्तूल. हमारे फ्लैट में रात में इतनी रोशनी आने लगी, कि, बिना लाइट जलाए अख़बार पढ़ सकते थे. हमने काले परदे ख़रीदे. जहाँ तक धूप-घड़ी का सवाल है, उन्होंने फिर से “दिखाना” बंद कर दिया है. रात में भी.







तीन अंकों वाली संख्या का स्मारक 
   
300वीं सालगिरह के उपलक्ष्य में पीटर्सबुर्ग को जो स्मारक भेंट किए गए, उनमें कलीनिनग्राद शहर का उपहार सबसे अलग है. बल्शाया ज़िलेनीनाया और लदेय्नोपोल्स्काया के कोने पर बने पब्लिक गार्डन में स्थापित किया गया, जिसे कलीनिनग्रादवासियों ने भेंट देते समय बहुत ख़ूबसूरत बना दिया था (पहले यहाँ एक छोटी-सी खाली जगह थी, जिस पर एक अकेला बीयर था). ये स्मारक मील के पत्थर जैसा है, जिस पर  हर पार्श्व में 782 का अंक दिखाया गया है. हमारे शहरों के बीच इतनी ही दूरी है. अगर ये स्तम्भ सचमुच में मील का पत्थर होता, तो उसकी जगह सेन्ट्रल पोस्ट ऑफिस में “शून्य के स्मारक” के अनुरूप होनी चाहिए थी. और चूँकि वह सेन्टृल पोस्ट ऑफ़िस से तीन मील से कुछ ज़्यादा दूर है, तो संयोगवश ही सही, उसके ऊपर दिखाई गई दूरी, उसकी असली जगह को प्रदर्शित नहीं करती. मतलब, ये मील का पत्थर नहीं है. ये सिर्फ “मील के पत्थर” का स्मारक-चिह्न है, या दूसरे शब्दों में – मील के पत्थर का स्मारक है. ज़्यादा आसान (और ज़्यादा सही) होगा ये कहना : संख्या 782 का स्मारक.

पूरी दुनिया में संख्या 782 के सिर्फ दो ही स्मारक हैं. दूसरा कलीलिनग्राद में, ये क्योनिसबेर्ग की स्थापना के 750 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में सेंट-पीटर्सबुर्ग की ओर से दिया गया था. सन् 2005 में 782-डबल का समारोहपूर्वक उद्घाटन कलीलिनग्राद में सेंट-पीटर्सबुर्ग के गवर्नर की उपस्थिति में किया गया.             





अन्य स्मारक

गणितीय मूल्यों के स्मारक सिर्फ पूरे और आधे मील के पत्थर ही नहीं हैं. ये एक और है : ग्रेनाइट का “बाढ़ का स्तम्भ”, जिसे सन् 1971 में ब्ल्यू-ब्रिज के पास मोयका के तट के पास स्थापित किया गया था. स्तम्भ पानी के नीचे जाता है, उस पर पानी के स्तर को दर्शाने वाली डेसीमीटर स्केल खुदी है. पाँच बड़ी बाढों के स्तरों को काँसे की पट्टियों से दिखाया गया है. इस तरह ये जल-स्तर नापने वाला ग्रेनाइट का स्तम्भ कुछ और नहीं, बल्कि सामान्य स्तर से ऊपर जल की सतह को नापने का, अर्थात् गणितीय मूल्य  का स्मारक है. इसके अलावा, स्तम्भ के तीन तरफ फिर से धूप-घडी वाली ग्रेनाइट की स्लैब्स लगाई गई हैं. जगह वाकई में धूप भरी है. घड़ियाँ काम करती हैं.

संघीय महत्व का यह स्मारक पुल्कोव्स्काया वेधशाला के क्षेत्र में है और इसका सीधा संबंध इतिहास से है, सरल शब्दों में, रूसी त्रिभुज से. ईंटों के पटल पर एक स्मारक-पट्टी है, जिस पर ये इबारत लिखी है:
लघु आधार
A----------B
पुल्कोव्स्काया भूगर्भीय स्कूल
1856 – 1929.
केंद्र B
पुनर्स्थापना : सन् 1989
पुल्कोव्स्काया वेधशाला के उद्घाटन की 150वीं वर्षगांठ पर
राज्य द्वारा संरक्षित

“केंद्र B” के बाईं ओर – झाड़ियाँ हैं, दाईं ओर – लाँन है. गौर करना होगा,कि स्मारक सबसे प्रसिद्ध नहीं है. और यह किसे समर्पित है, इसका जवाब हर कोई नहीं दे सकता. कोई बात नहीं, ये सामान्य बात है. जाने दो. हैट उतारें और कुछ देर खड़े रहें.

   दिसम्बर 2007

शुक्रवार, 26 अक्टूबर 2018

Monuments of Petersburg - 18



पैर में ऐंठन





शायद गोल चष्मे की वजह से हो, मगर दूर से वह सचमुच में बुढ़ा गए और ज़्यादा अक्लमंद हो गए हैरी पॉटर जैसा लगता है, और कुछ-कुछ जॉन लेनन जैसा भी, छोटे-छोटे बालों वाला और सूट पहना हुआ. और, बेशक, गुज़रे ज़माने के सकारात्मक नायक का “समकालीन का आदर्श”, जैसे मिडल स्कूल के बारे में समस्यागत सोवियत फिल्मों का आदर्श शिक्षक, जब इस स्कूल में चात्स्की का स्वगत भाषण मुँहज़बानी याद करवाया जाता था (मैंने किया था), और न सिर्फ इतना ही: बल्कि फ़मूसव का भी, और स्कालाज़ूब का भी.    

हालाँकि वह ग्रिबायेदव है, मगर उसे देखकर अक्सर चेर्निशेव्स्की या दब्राल्यूबव का धोखा हो जाता है.
ऐसा प्रतीत होता है, कि उसे ख़ुद को भी यह बात महत्वपूर्ण नहीं लगती कि उसे किस नाम से प्रदर्शित किया गया है. ग्रिबायेदव से? ठीक है, जाने दो. उसे ख़ुद को कोई फ़रक नहीं पड़ता कि वह कौन है. और अपने चारों ओर की हर चीज़ के प्रति वह उदासीन है. मौजूद है, जैसे संयोगवश उपस्थित है, - अगर है, मतलब है, और नहीं भी हो सकता था. जिस अनासक्ति से वह आसपास के स्थान को देखता है, वो जैसे एक सिद्धांत में ढल गई है. वैसे ही, जैसे शिल्पकार वी.वी. लीशेव, जिसने ये शिल्प बनाया था, आत्मसंरक्षण के बारे में प्रयत्न कर रहा था – उसने ऐसा कुछ भी नहीं बनाया है, जिससे किन्हीं अनुमानों को मौका मिले. किन्हीं भी नहीं.   

और हाँ, कुर्सी में बैठा है, चष्मे के भीतर से थकी हुई नज़र गरोखोवाया स्ट्रीट की गहराई में उलझ गई है. ख़यालों में मग्न. झुका हुआ, जैसे ध्यानमग्न हो. कोई जुनून नहीं, कोई ललक नहीं, कोई आवेग नहीं. भावहीन चेहरा, अचरज होता है – चेहरे पर कोई भाव नहीं हैं.

ज़ाहिर है, कि वह कुछ रच रहा है. और ये भी ज़ाहिर है कि “बुद्धि से दुर्भाग्य” की रचना कर रहा है. और वह कर ही क्या सकता है? अगर वह ग्रिबोयेदव है  - तो यहाँ, इस कुर्सी में वह और क्या करेगा? कागज़ के पन्ने घुटने पर पड़े हैं, मगर हाथ में कलम नहीं है – न दाएँ में, न बाएँ में. हो सकता है, इसीलिए पन्ने कोरे हैं. और हमें, जो पैडेस्टल के पास खड़े हैं, साफ़ दिखाई देता है : कागज़ का ऊपरी हिस्सा दर्शकों की ओर झुका हुआ है, अभी-अभी काँसे के वज़न के साथ मज़बूत घुटने से नीचे फिसलने वाला ही हैं – कोशिश कर लो छिटकने की.

मगर यदि वह कुछ नहीं लिख रहा है (और पढ़ भी नहीं रहा है), तो क्या मैं पूछ सकता हूँ, कि उसने चष्मा क्यों पहना है? कहीं सिर्फ गरोखोवाया को देखने के लिए तो नहीं?

बात ऐसी है. नज़र उसकी एकदम सीधी है. कहीं भी केंद्रित नहीं ( केंद्रित होना – आवेग है), और सीधी – सीधेपन से दृश्य को जवाब देती हुई, जो एडमिरैल्टी की ओर केंद्रित है. और वहाँ है उसका शिखर, वहाँ है एक छोटा सा जहाज़...अब तो यह यकीन करना भी मुश्किल है कि पहली योजना के अनुसार स्मारक को किसी दूसरी जगह पर खड़ा होना (या बैठना?) था. तब किधर देखता? वहाँ, जहाँ स्मारक को पहले स्थापित करने की योजना थी, वहाँ किसी दृश्य की गुंजाइश ही नहीं थी.

मतलब, उसे चष्मा पढ़ने के लिए ही पहनाया गया है, न कि दूर पर नज़र गड़ाने के लिए. योजना के मुताबिक.

हाँ, ये सवाल है : क्या ऐतिहासिक ग्रिबायेदव निकटदृष्टि दोष से पीड़ित था या दूरदृष्टि दोष से?
ये ख़याल कि चष्मा बिना काँच का है और उसे सिर्फ दिल बहलाने के लिए पहनाया गया है, हम खारिज कर देते हैं.

काँच चाहे नहीं हैं, मगर लगता है, कि वे हैं, इस बात पर हमें यकीन करना होगा. चाहे कुछ भी कहिए, ऐसा कभी-कभार ही होता है : स्मारक, नियमानुसार, चष्मा नहीं पहनते.

हर हालत में, काँसे के ग्रिबोयेदव को यहाँ हमेशा कुछ न कुछ पढ़ने को मिल जाएगा ( और हमेशा ही मिलता रहा है).

ये काफ़ी कुछ कह जाता है.

ऐसा मानते हैं, कि इश्तेहार और इसी तरह के बैनर्स सड़कों पर पैदल चलने वालों के लिए, या कारों में जाने वालों के लिए बिल्कुल नहीं लगाए जाते. सामान्य पैदल चलने वालों और कारों में जाने वालों में से कितने लोग अपनी इच्छा से इन बैनर्स पर लिखी हुई इबारत पढ़ते हैं? मैं, मिसाल के तौर पर, बैनर्स का पाठक नहीं हूँ. मेरे दिमाग़ में तो कभी इन बैनर्स पर तनी हुई जानकारी को समझने का ख़याल भी नहीं आता, जो वे पहेलियों के रूप में पेश करते हैं. मानता हूँ, कि जानकारी फिर भी आत्मसात् कर ही लेता हूँ, मगर अवचेतन रूप से, अपनी इच्छा के विरुद्ध. मगर यहाँ बात कुछ और है. अपनी इच्छा के विरुद्ध उसे, ग्रिबायेदव को – स्पष्टतः और सीधे – इन बेकार की इबारतों में हिलगा लेते हैं. हमेशा!

वे हमेशा उसकी आँखों के सामने रहती हैं. उनसे मुँह भी नहीं मोड़ सकते – पैडेस्टल पर बैठा हुआ, वो पढ़ने से इनकार नहीं कर सकता, जो उसे दिखाया जाता है.

कभी-कभी मुझे ऐसा लगता है, कि वह उनका इकलौता पाठक है, दशकों से, दनादन एक के बाद एक बदलने वाले इन नारों का, आह्वानों का, इश्तेहारों का. क्या यह सब सिर्फ उस अकेले की ही आँखों के सामने खींचकर लगाया जाता है, वर्ना इतना निरंतर और आज्ञाकारी पाठक और कहाँ मिलेगा?
मैं ये भी मानने के लिए तैयार हूँ, कि ये चष्मा ही सड़कछाप इश्तेहार वालों को उकसाता है कि अपनी इबारतों को उसके (चश्मे के) मालिक के सामने प्रस्तुत करें. अगर चष्मा पहने हुए है – तो, मतलब वह पाठक है. ठीक है, तो फिर पढ़ो, पढ़ते रहो!

और वह पढ़ रहा है. उसके पास करने के लिए और है ही क्या?

जैसे उसे किसी टीवी स्टूडियो में किसी एडवर्टाइज़िंग प्रोग्राम के एंकर के स्थान पर बिठाया गया हो, और वह अपनी आँखों के सामने रखे मॉनिटर में टेलिप्रॉम्प्टर की ओर देख रहा हो. और ख़ामोश हो. और उसे बस दिखाया जा रहा है, दिखाया जा रहा है...इस उम्मीद में कि वह दोहराएगा.
मगर इंतज़ार करते रहिए. वह ख़ामोश ही रहेगा. बोलकर तो एक भी बात नहीं दोहराएगा. स्मारक बातें नहीं करते. चाहे दशकों तक उनके सब्र का इम्तिहान क्यों न लिया जाए.

असल में प्रयोगों का उद्देश्य स्पष्ट नहीं है. काँसे के ग्रिबायेदव पर किए जा रहे प्रयोगों का उद्देश्य रहस्यमय है.

हमारे पास क्या है? एक युग को बदलते हुए दूसरा युग आता है : देर्झिन्स्की स्ट्रीट थी, फिर से गरोखोवाया हो गई. स्मारक का सन् 1959 में उद्घाटन किया गया, नवम्बर समारोहों के दो हफ़्तों बाद और शोकपूर्ण बरसी के नौ महीने बाद – दूरस्थ पर्शिया में हुई कवि की मृत्यु के 130 साल बाद. तभी चाँद पर रॉकेट भी छोड़ा गया था. तदनुसार अलेक्सान्द्र सिर्गेयेविच की आँखों के सामने गर्वीला नारा “सोवियत विज्ञान की जय!” प्रकट हो गया. फिर उसे मे-डे ज़िंदाबाद!” के नारे से प्रेरित किया गया और बाईसवीं काँग्रेस से आरंभ करके पार्टी की सभी काँग्रेसों के निर्णयों को पूरा करने की अपील की गई. सोवियत काल में देर्झिन्स्काया स्ट्रीट पर इश्तेहार लम्बे समय तक लटके रहते थे, मगर बार-बार बदलते नहीं थे, अपीलों की सूची लम्बी नहीं थी, कभी कभी फुर्सत के लम्बे पल भी मिल जाते थे, जो ग्रिबायेदव की नज़र को एडमिरैल्टी को देखते हुए आराम करने का मौका देते थे.

“बुद्धि से दुर्भाग्य” के लेखक की ओर इबारतों का असली आतंकी हमला सोवियत काल के बाद आरंभ हुआ. उसके काँसे के चष्मे के सामने अपीलों की श्रृंखला खुलती चली गई, फिर वे तेज़ी से बदलने लगीं, क्योंकि मामला किसी एक इश्तेहार तक सीमित नहीं था – गरोखोवाया पर अधिकाधिक इश्तेहार लटकाए जा रहे थे, और हर इश्तेहार दूसरे को रोकते हुए चिल्ला-चिल्लाकर सहनशील ग्रिबायेदव से कोई अपील कर रहा था. उसे ज़ोर देकर क्रेडिट लेने की सलाह दी जाती, झ्वानेत्स्की के काव्य-पाठ में, रोज़ेनबाउम की कॉन्सर्ट में आमंत्रित किया जाता, उससे अपने फ्लैट के वॉल पेपर को बदलने की माँग की जाती, नई कार खरीदने की, ब्रान्डेड माँस-उत्पादों को खरीदने, प्लास्टिक सर्जरी करवाने और सबसे बेहतरीन टेलिफोन कम्पनियों के सबसे सस्ते टैरिफ़ को चुनने को कहा जाता. लोगों की अपेक्षा स्मारकों के लिए समय ज़्यादा धीरे गुज़रता है. अत: स्मारकों की ग्रहणशक्ति की विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए विभिन्न प्रकार की इन सूचनाओं को आराम से क्लिपकह सकते हैं.

सन् 1959 में ग्रिबायेदव के यहाँ प्रकट होने के पीछे ये प्रेरणा थी, कि बगल में ही TYUZ (थियेटर फॉर यंग व्यूअर्स) बनाया जा रहा है, और ग्रिबायेदव को स्कूल में पढ़ाया जाता है. वाकई में दो साल पहले ही सिम्योनोव्स्की परेड ग्राउण्ड पर TYUZ की बिल्डिंग की आधारशिला रखी गई थी, जिसने ऐतिहासिक ग्रिबायेदव को कुछ प्रमुखता दी, जो इस जगह पर कभी गया ही नहीं था, मगर जिसे स्कूल के पाठ्यक्रम में दस्तयेव्स्की से पहले शामिल किया गया था, जो एक बार यहाँ अपनी मौत की आशंका से ठिठुर गया था. तो, TYUZ की बिल्डिंग और ग्रिबायेदव के स्मारक के बीच कुछ संबंध तो है – आंशिक रूप से अर्थगत, और कम से कम शैलीगत भी. सड़क के उस छोर पर एडमिरैल्टी के दृश्य की बदौलत : अगर वहाँ इतना शानदार है, तो यहाँ भी कुछ वैसा ही होना चाहिए – सम्पूर्णता और सुंदरता के लिहाज़ से.   संदर्भ पुस्तिकाओं में अक्सर ग्रिबायेदव के स्मारक को TYUZ की बिल्डिंग के परिप्रेक्ष्य में दिखाया जाता है, जो पायनिर्स्काया स्क्वेयर (जैसा सन् 1962 से सिम्योनोव्स्की परेड ग्राउण्ड को कहते हैं) की गहराई में स्थित है; ग्रिबायेदव के दोनों तरफ़ से TYUZ तक काँक्रीट की स्लैब्स से बने हुए समानांतर फुटपाथ जाते हैं; ग्रिबायेदव के पीछे, अच्छा है कि वह इसे नहीं देखता, कुछ बेढंगी, हँसमुख आकृतियाँ हैं, रूपक के शौकीन जवान लड़कों और लड़कियों की (एक के घुटनों पर किताब पड़ी है). संक्षेप में स्मारक को ऐसे ही शैक्षणिक संदर्भ में समझना चाहिए. मेरे ख़याल में, ये सही नहीं है. स्मारक निश्चित रूप से आसपास की चीज़ों से तादात्म्य स्थापित करता है, मगर बिल्कुल अलग तरह का. ग्रिबायेदव को TYUZ के परिप्रेक्ष्य में, अर्थात सामने से समझने की अपेक्षा पीठ की तरफ़ से समझना ज़्यादा सही होगा, इस तरह, कि लटके हुए इश्तेहार दिखाई दें, जिन्हें ग्रिबायेदव को मजबूरन पढ़ना पड़ता है और जिनके बिना उसकी कल्पना करना मुश्किल है. इश्तेहारों और बैनर्स से अटी पड़ी गरोखोवाया स्ट्रीट ही कुर्सी पर बैठे हुए काँसे के अलेक्सान्द्र सिर्गेयेविच ग्रिबायेदव के साथ अर्थगत और शैलीगत तादात्म्य स्थापित करती है. जहाँ तक TYUZ का सवाल है, उसकी यहाँ कोई ज़रूरत ही नहीं है.

अगर हम पीठ की तरफ़ से ग्रिबायेदव को देखें, तो ग्रिबायेदव की – जो इन इश्तेहारों का पाठक है, एक दिलचस्प बात पर गौर किए बगैर नहीं रह सकते. उसका बायाँ पैर कुछ मुड़ा हुआ है और जैसे मजबूरन दाएँ पैर पर रखा है; हमें कुर्सी के नीचे से, जिस पर ग्रिबायेदव बैठा है, उसके जूते का तलवा दिखाया जाता है इतनी लापरवाही है उसके बैठने में. अगर चष्मे वाला स्मारक दुर्लभ होता है, तो जूते का तलवा दिखाने वाला स्मारक भी असाधारण चीज़ है. हम पूरा तलवा देख सकते हैं, पूरी एडी के साथ, स्पष्टता से, बनावट समेत, और इसके लिए हमें कुर्सी के नीचे जाने की ज़रूरत नहीं है, ग्रिबायेदव के दायें कंधे के पीछे ठहरना काफ़ी है, हद से हद (अगर कोई छोटे कद का हो तो), लॉन को फुटपाथ से अलग करने वाली मुंडेर पर चढ़ना पड़ेगा. हम देखेंगे : तलवा पैडेस्टल की सतह से लगभग समकोण बना रहा है. अपने आप में तो वह दिलचस्प नहीं है. मगर पैर का असाधारण रूप से मुड़ना काबिले गौर है. क्या इस मुद्रा से ये ज़ाहिर होता है कि वह आराम से बैठा है? इस तरह से बैठकर और पैर को इस तरह मोड़ कर तो देखिए, ऊपर से जूते पहने पैर को. दर्द होगा. नहीं, जनाब, ये कुछ और नहीं बल्कि ऐंठन है. ऐंठन ही ग्रिबायेदव के बाएँ पैर को घुमा रही है.
कागज़ के पन्नों की ओर देखिए. क्या वे यूँ ही घुटने से फिसल रहे हैं? बस एक पल - और वे सचमुच ही फिसल जाएँगे!...दायाँ हाथ – शिथिल अलसाहट में – उन्हें पकड़ने की कोशिश भी नहीं कर रहा है. अच्छा, अच्छा...बाएँ हाथ को क्या हुआ? – कोहनी कुर्सी की पीठ पर पड़ी है, हाथ के लिए दूसरा कोई सहारा है ही नहीं, इस हालत में उसे क्या ज़्यादा देर रख सकते हो? ग्रिबायेदव का भारी-भरकम हाथ सीधे कुर्सी की पीठ से नीचे उतर रहा है, फिसल रहा है!...एक सेकण्ड बाद वह गिर जाएगा!...और वह अपना संतुलन खो बैठेगा!...और, एक ओर गिरने के बाद, वास्तुशिल्पी वी. ई. याकव्लेव के डिज़ाइन के अनुसार बनाए गए षट्कोणीय पैडेस्टल से नीचे गिर जाएगा. और एक पूरी कहानी बन जाएगी.

ये एक-दो सेकण्ड बाद ही होने वाला है, मतलब ये, कि कभी नहीं होगा, क्योंकि उन दुर्दैवी पलों से पूर्व निश्चित ही एक पल था, चिर काल के लिए रोका गया पल – एक अंतहीन पल गहरी मूर्छा से पहले का, जिसमें बस गिरने ही वाला है (और नहीं गिरेगा) ग्रिबायेदव.                                  
तो ये बात है! यहीं से चेहरे पर अनासक्ति का भाव है – ये मूर्छित होने से पहले की अनासक्ति है! दर्द उसे महसूस नहीं हो रहा है (टखने के जोड़ में), अभी उसमें बैठे रहने की ताकत है, मगर वह तैर चुका है, तैर चुका है, होश खो रहा है...

सब ख़त्म हो गया. आँखों के सामने अंधेरा है. फमूसव का अधूरा स्वगत वाक्य पूरा करने को जी चाहता है...मगर फमूसव के बदले तुम्हारे सामने है : “क्रेडिट 1500000 डॉलर्स तक...” – “5% की छूट...” – “ तुम्हारी आदर्श स्टाईल...”

“हैमोराइड भूल जाओ!” क्लिनिक का पता दिखाते हुए.

और इस यातना का अंत नहीं है.

जनवरी 2007