विशेष
मिशन
उस रात चंद्र ग्रहण था. हम
दोस्तों से मिलकर ज़ागरोद्नी एवेन्यू पर जा रहे थे. सब बहुत ख़ुश थे. पूरा ग्रुप जाम्बूल
उद्यान पथ की ओर मुड़ा और अचानक कूरीत्सिन खो गया.
रुक गए. पब्लिक गार्डन में
रात की ज़िंदगी गरमा रही थी – कुछ परछाइयाँ ख़ामोशी से घूम रही थीं. दो दाढ़ी वाले
मुंडेर पर अभी शुरू की गई बोतल के साथ बैठे थे. रात गर्म थी,
लगभग दक्खिन की रात जैसी, सिर्फ झींगुरों की
कमी थी. ऐसा लग रहा था, कि लोगों को यहाँ ग्रहण में कोई
दिलचस्पी नहीं थी. मगर अंधेरे चाँद के नीचे यहाँ पर हर चीज़ कुछ रहस्यमय, अलौकिक लग रही थी.
कुरीत्सिन गार्डन की गहराई
से अचानक वैसे ही प्रकट हुआ, जैसे गायब हो गया
था. अनकहे विचारों की हलचल ने लेखक के चेहरे को उत्तेजित कर दिया था. हम आगे बढ़े –
कुरीत्सिन किसी के बारे में बता रहा था. जैसे, सब उसे
गालियाँ देते हैं, मगर यदि वो यहाँ नहीं होता, तो यहाँ गार्डन नहीं, बल्कि किसी बहुमंज़िला इमारत की
बेतुकी प्रतिकृति होती...
विचेस्लाव कुरीत्सिन न
सिर्फ सहनशील है, बल्कि स्वभाव से तरफ़दारी करने वाला
भी है.
वह जाम्बूल के स्मारक के
बारे में बता रहा था.
हम जाम्बूल के स्मारक के
बारे में भूल ही गए थे, रात को जैसे वह वहाँ था ही
नहीं.
कुरीत्सिन की कहानी से मैं
चौंक गया. अजीब बात है, कि इतनी सीधी बात मेरे दिमाग़
में नहीं आई. मेरे – जो स्मारकों के उद्देश्य के बारे में
इतना ज़्यादा सोचता रहता है.
काँसे का जाम्बूल –
पीटर्सबुर्ग की तीन सौवी सालगिरह पर मिले अनेक उपहारों में से एक – स्मारकों की
महान फ़ौज का एक सहभागी था, जिसने
पीटरबुर्गवासियों को कुछ सतर्क कर दिया था. मिखाइल ज़लतानोसव ने इस अद्वितीय
ऐतिहासिक घटना के बारे में काफ़ी कुछ और विस्तार से लिखा है, 41 लगता है कि उसमें कुछ और जोड़ने की ज़रूरत नहीं है. उसकी किताब “काँस्य-युग”
में ख़ुद स्मारकों का, उनके रचनाकारों का, संरक्षकों का, और कभी-कभी शाश्वत हो गई वस्तुओं का
भी ज़िक्र है.
वाकई में,
जाम्बूल – उत्कृष्ट है. जाम्बूल के शब्दों से कज़ाक महाकाव्य का
अधिकतम भाग लिखा गया है. ये भी सच है, कि तीस के दशक में
उसके नाम का बेरहमी से दुरुपयोग किया गया. “वीर योझव के गीतों में” और इसी तरह के
अन्य गीतों में. मुझे याद है, कि जब मैं विद्यार्थी था,
तो मुझे नब्बे साल के आशु कवि की गहरी कविताओं ने, जो मुझे “युवा कल्खोज़्निक” नामक पत्रिका के पुराने अंक (1938, अंक 3) में मिली थीं, इतना प्रभावित किया था, कि मैंने फ़ौरन उन्हें अपनी नोटबुक में लिख लिया था. आशु कवि जाम्बूल की
तरफ़ से, अनुवादक कन्स्तान्तिन अल्ताय्स्की की कोशिशों से –
जिसका तब तक दमन नहीं हुआ था – “नाश करो!” इस प्रभावशाली शीर्षक से जनता के
दुश्मनों का विनाश करने का ज़ोरदार लयबद्ध आह्वान दिया गया था : “धिक्कार करों उनके
कामों का, झूठी बातों का / हरण करो राक्षसों से मानवीय नामों
का! / चलती लाशें, हत्यारे, झूठे - /
युद्ध की आग से हमें डराते वे...”
जाम्बूल का नाम युद्ध के
बारे में कविताओं, बल्कि, लेनिनग्राद
के घेरे को समर्पित कविताओं के कारण लेनिनग्रादवासियों को लम्बे समय तक याद रहा.
“लेनिनग्रादवासियों, मेरे बच्चों!...” – और ये इतना
महत्वपूर्ण नहीं है, कि क्या उम्र के दसवें दशक में वह ख़ुद
कज़ाख़्स्तान की स्तेपियों से हमसे मुख़ातिब हुआ था, या ये
ज़्यादा विश्वसनीय है, कि “अनुवादक”
मार्क तर्लोव्स्की ने उसकी अपील की नकल की थी (ज़लतानोसव ने लेख का काव्यात्मक
विश्लेषण किया था), महत्वपूर्ण बात दूसरी है, कि इसे उस समय किस रूप में ग्रहण किया गया – घेराबंदी के दिनों में. ये
सिर्फ साहित्यिक घटना से भी कुछ अधिक ही था.
तो,
आशु कवि हमेशा रहे. ये है वो जगह...
जाम्बूल के स्मारक का इस
जगह से सिर्फ इतना ही संबंध है, कि ये जाम्बूल
उद्यान-पथ है, और जाम्बूल उद्यान-पथ, जिसका
पुराना नाम लेश्तुकोव-पथ था, ऐतिहासिक जाम्बूल से उसी तरह
पेश आता है, जैसे चंद्र ग्रहण, जिसका
वर्णन इस लेख के आरंभ में किया गया है, जाम्बूल के स्मारक से
पेश आता है. मगर स्थानीय निवासियों को वह, शायद, अच्छा लगता है (एक बार पूछताछ की थी). भला है, कहते
हैं...अच्छी तरह खड़ा है...किसी को परेशान नहीं करता...
ये भी सही है. छोटे से
गार्डन में भूतपूर्व अपार्टमेन्ट-बिल्डिंग्स के बीच, वह किसी
प्रवासी कार्यकर्ता के रिश्तेदार की तरह लगता है, जो अभी-अभी
बस्ती से आया हो; लम्बी पोषाक पहने हाथों में दोम्ब्रा (छोटा
सा तम्बूरा – अनु.) लिए खड़ा है और दरबारी इबारत “त्रोयका” की ओर देख रहा है,
जो एक रेस्तराँ को दर्शाती है.
और सही ढंग से खड़ा है.
कुरीत्सिन सही है, अगर वह यहाँ नहीं होता, और उसका उद्घाटन ख़ुद प्रेसिडेंट नज़रबायेव ने किया होता, तो यहाँ बेतुका निर्माण कार्य हो गया होता!
मगर जब बात ऐसी है,
तो क्यों न इसी कोने में खड़े, शहर को प्राप्त
हुए अन्य उपहारों पर भी क्यों न नज़र डाली जाए?
याद कर रहा हूँ,
कि शुरूआत कहाँ से हुई थी. शायद, तरास
शेव्चेन्का से. सन् 2000 में उसका भी अनावरण प्रेसिडेंटों ने किया था – तत्कालीन –
रूसी और युक्रेनी. और शहर को स्मारक भेंट किया था ख़ुद युक्रेनी मूल के कनाडावासी शिल्पकार, लिओ मोल ने.
वैसे,
हाँ. ‘लेनसवेत कल्चरल पैलेस’ पर, जो चाहे तीन बार कन्स्ट्रक्टिविज़्म शैली में
बनाया गया है, डेवलपर्स इन्वेस्टर्स कब से, और सही में आँखें गड़ाए बैठे हैं, मगर बगल वाले गार्डन
की ओर कोई आँख उठाकर भी नहीं देखता. कहीं इसलिए तो नहीं, कि
वहाँ जगह पहले ही भर चुकी है और उसकी सुरक्षा करता है काँसे का तरास शेव्चेन्का?
कामेन्नाओस्त्रोव्स्की
एवेन्यू पर बने एक स्मारक के बारे में, जिसका
अनावरण पड़ोसी देशों (रूस और अज़रबैझान, 2002) के प्रेसिडेंटों
की उपस्थिति में किया गया था, काफ़ी कुछ प्रशंसात्मक कहा गया
है, मगर जो इस बात पर ज़ोर देते हैं, कि
खूबसूरत कमान के नीचे चट्टान पर बैठा काँसे का पूरबी संत-कवि पीटर्सबुर्ग की
परंपराओं के ख़िलाफ़ है, उनका ध्यान मैं स्मारक की सुरक्षात्मक
भूमिका की ओर आकर्षित करना चाहूँगा. अगर बिल्डिंग्स नंबर 25 और 27-A के बीच वाले गार्डन में जवान लड़कियों और छरहरे पेड़ के उत्कीर्ण चित्र के
साथ निज़ामी का स्मारक न प्रकट न होता, तो शायद 25-A या 27-B नंबरों वाली कोई और चीज़ प्रकट हो जाती. मगर
ऐसा नहीं हुआ.
एक और उदाहरण. बड़ा कॉन्सर्ट
हॉल “अक्त्याब्रस्की”. वैसे अगल-बगल में कुछ भी बनाने की इजाज़त नहीं है...मगर कौन
जानता है, उन्होंने कज़ान कैथेड्रल के पीछे एक
अकल्पनीय चीज़ खड़ा कर दी! तो, हो सकता है, कि सन् 1827 से ग्रीस के प्रेसिडेंट (और उसके पूर्व – रूसी राजनयिक),
रहे इवानिस कपोदिस्ट्रीअस
का पूर्णाकृति स्मारक - अजीब, गंभीर
आपत्तियों के होते हुए भी - इतने ऊँचे पैडेस्टल पर न केवल उचित है, बल्कि वहाँ ज़रूरी भी है? और ये बात, कि ख़ुद ग्रीस के प्रेसिडेंट ने सालगिरह के अवसर पर उसका अनावरण किया,
सिर्फ स्मारक के गुप्त मिशन की पुष्टि करती है – खंभों से घिरी हुई
जगह की सुरक्षा करना?...
चीन के उपहार ने काफ़ी
लोगों को परेशान कर दिया – गार्डन ऑफ फ्रेंडशिप, उर्फ
शंघाई-गार्डन – लितेयनी एवेन्यू पर. लितेयनाया पर बना एक कम ऊँचाई का पगोडा,
बहस की बात ही नहीं, ख़ास लगता है, और उससे भी ज़्यादा ख़ास हैं – दो शी-त्ज़ा की पत्थर की मूर्तियाँ. मगर यदि
आप नहीं जानते, कि ये शेर-राक्षस यहाँ क्या कर रहे हैं और
उनके कुछ खुले जबड़ों में बड़े-बड़े दाँतों के पीछे चौड़ी जीभों पर वज़नदार गोले क्यों
रखे हैं (यूरोपियन्स को सिर्फ बूझना होगा कि तकनीकी दृष्टि से ये कैसे किया गया
होगा). जानकार लोग कहते हैं कि दाँतों के पीछे गोले – नींद भगाने का साधन हैं :
शेर को झपकी आने लगती है, तो उसका जबड़ा खुल जाएगा, गोला नीचे गिरेगा और वह फ़ौरन उठ जाएगा. शेर-राक्षसों के लिए सोना मना है.
वे उन्हें सौंपे गए क्षेत्र की बुरी शक्तियों और दुष्ट राक्षसों से रक्षा करते
हैं. प्रस्तुत परिस्थिति में – पास-पास बिल्डिंग्स बनाने वालों से. थैन्क्स,
चीन.
कोरिया को भी धन्यवाद
चासिन (चासिन - रक्षक-आत्मा - अनु.) की तेरह मूर्तियों के लिए,
जिन्हें कोरिया के वाणिज्य दूतावास की धनराशि से “सस्नोव्का” पार्क
में स्थापित किया गया है. इन मूर्तियों को पिता और पुत्र ने रूसी चीड़ के वृक्षों
से तराशा था, दोनों ही काष्ठ-शिल्पकार हैं, पिता का नाम कोरियन रिपब्लिक के गोल्डन फण्ड में 108वें नंबर पर है,
जैसा कि स्मारक-पट्टिका द्वारा सूचित किया गया है. मूर्तियाँ काफ़ी
दूर-दूर, काफ़ी विस्तृत क्षेत्र में स्थित हैं, उनकी जगह पर कुछ भी नहीं बनाया गया है. मगर यदि वे वसील्येव्स्की द्वीप पर
होतीं, तो किसे पता, कि शायद, वहाँ टाऊन-प्लानिंग की गलतियों की इजाज़त न दी जाती...
चीनी शेर शी-त्ज़ा और
कोरियन चासिन मूर्तियाँ अपने नामों के अनुसार अपने-अपने क्षेत्रों की रक्षा करती
हैं. हमारे यहाँ वही काम अन्य वस्तुएँ कर सकती हैं. जैसे,
कलीलिनग्राद क्षेत्र के प्रमुख की उपस्थिति में जिसका अनावरण किया
गया, वह दो शहरों के संबंधों का मील के पत्थर की शक्ल का स्मारक. चारों तरफ़
बेतहाशा निर्माण हो रहा है, मगर वह पार्क जो इस वस्तु से
पवित्र हो गया है, अनछुआ ही रहा है.
एमिल नेल्लिगान के स्मारक
का अनावरण कनाडा के प्रधान मंत्री ने किया था. क्वेबेक प्रांत के इस फ्रेंच-भाषी
कवि के बारे में हमारे यहाँ कोई भी, कुछ भी नहीं जानता. एम. ज़लतानोसव ने नेल्लिगान
के स्मारक को “पीटर्सबुर्ग की 300वीं सालगिरह का सबसे बेतुका तोहफ़ा” कहा है. मानता
हूँ, मगर एक आपत्ति के साथ : बेतुका सिर्फ एक लिहाज़
से है – सही जगह पर स्थापित नहीं किया गया! “प्लेखानव-आवास” के सामने वह बेकार ही
खड़ा है, जिस जगह पर वो खड़ा है, वह
छोटी-सी होने के कारण उसे कोई ख़तरा नहीं है. अगर वह कज़ान्स्की कैथेड्रल के पीछे
होता, पीने के पानी के फ़व्वारे से करीब सौ मीटर बाईं ओर,
या कम से कम ज़ागरद्नी और गरोखवाया वाले नुक्कड़ पर तब तक विद्यमान
पार्क में (वहाँ पेड़ लगे हैं), या, जैसे
गरोखवाया और ग्रेट कज़ाक लेन के नुक्कड़ पर ही होता.... कहीं भी होता...तो क्या वहाँ
ये नया भयानक पुनर्निमाण हो सकता था?
शिकायत कर रहे थे कि बहुत
सारे उपहार दिए गए हैं...सब मिलाकर तीस से कुछ ऊपर...मगर तीस नहीं – तीन सौ होने
चाहिए थे! कम से कम एक सौ नब्बे – संयुक्त राष्ट्र के सदस्यों की संख्या के अनुसार,
तब तक मान्यता न प्राप्त हुए गणतंत्रों को छोड़ भी दो तो...शहर
घनीकरण से पूरी तरह सुरक्षित हो जाता.
मेरी खिड़कियों के सामने एक
गार्डन है. गार्डन के भीतर एक टुकड़े को घेर लिया गया है और वहाँ कुछ हो रहा है.
कहते हैं, कि वहाँ एक होटल बनाया जाएगा. किसी
को भी गार्डन के भीतर होटल नहीं चाहिए. पूरी ज़िंदगी यहाँ रहा हूँ और अभी हाल ही
में मुझे पता चला है कि फोंतान्का और मॉस्को एवेन्यू के कोने पर बना हमारा गार्डन
मार्शल गोवरोव गार्डन कहलाता है. मैं ये सोचने की हिम्मत भी नहीं कर सका कि
एस्तोनिया को स्वतंत्र करवाने वाले जनरल के स्मारक का अनावरण उसके प्रेसिडेंट ने
किया था, मगर, ये भी सच है, कि चाहे किसी ने भी यहाँ स्मारक स्थापित किया हो, चाहे
जब भी किया हो, इस गार्डन को किसी चीज़ से कोई ख़तरा नहीं हो
सकता था.
ठीक है, गोवरोव के लिए
छोटी सी बात है. यहाँ गोवरोव को नहीं लाएँगे. गोवरोव स्ताचेक (स्ताच्का – हड़ताल
– 1905 की क्रांति के दौरान मज़दूरों की हड़ताल से संबद्ध – अनु.) स्क्वेयर पर
खड़ा है, उसे वहीं अच्छा लगता है.
यहाँ नेल्लिगान को लाना
चाहिए. नेल्लिगान को!
अधिकारी,
चाहे आप कुछ भी कहें, स्मारकों से डरते हैं –
वे उनके साथ इश्क कर सकते हैं, उन्हें धमका सकते हैं,
मगर एक बार वास्ता पड़ने के बाद, दुबारा कोई
रिश्ता नहीं रखना चाहते, सावधान रहते हैं. कठोर उपाय - अंतिम उपाय है.
और दिलचस्प बात ये है,
कि स्मारकों की सुरक्षा के लिए लोग अपने आप अपील करते हैं. अक्टूबर
2007 में सभी समाचार एजेन्सियों ने प्रिमोर्स्की एवेन्यू की दो बिल्डिग्स के
निवासियों की मौलिक पहल के बारे में सूचना दी. डेवलपर्स से बच्चों के पार्क को
बचाने के लिए यहाँ पर रशियन फेडेरेशन के तत्कालीन प्रेसिडेंट के कोनी नामक
लेब्राडोर कुत्ते का स्मारक बनाने का विचार किया गया. व्यावसायिक शिल्पकारों से इस
ऑर्डर को पूरा करने की विनती की गई, और प्रेसिडेंट के
प्रशासन से भी सम्पर्क किया गया. प्रशासन ने क्या जवाब दिया, मुझे पता नहीं, मगर स्थानीय शासन परेशान हो गया.
कहता तो हूँ,
उनसे, स्मारकों से डरते हैं. वे – हमारे लिए
हैं. वे ऐसे ही हैं. किसी स्मारक का सिर्फ विचार ही ख़ुद स्मारक से ज़्यादा भयानक
होगा.
सितम्बर
2008
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41. एम. एन. ज़लतानोसव. “काँस्य-युग”. सेंट
पीटर्सबुर्ग, 2005, पृ.
410-414


